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ये सब ठीक है; और, जो दुनियाको व्यक्तिके अर्थ रखनेवाली मानें वे उनसे गलत क्यो है ? जो व्यष्टिको समष्टिके प्रयोजनार्थ समझते है वे गलत क्यों है ? और वे गलत क्यों है जो इतिहासका तमाम तत्त्व इसमें समझते है कि हम जानें कि अमुक राजा किस सन्में मरा और फला लड़ाई किस सन्मे लड़ी गई ?
सब बात अपनी अपनी भूमिका और अपनी अपनी दृष्टिकी है। और जो द्वन्द्व इस घोरता के साथ घट-घटमे व्याप रहा है उसे मै
सत्-असत्का द्वन्द्व कहकर समझ, इसमें मुझे सुख मिलता है । साहित्य में भी सत् असत् की लड़ाई है। असत् कहने से यह न समझा जाय कि जिसमें बल नहीं है वह ही असत् है । नहीं। बल्कि, मात्र आँखोंसे देखें तो बात उल्टी दीखेगी । क्रोधमें जो बल है, शान्तिमें कहाँ है? और हिंसाका प्राबल्य किसने नहीं देखा ? अहिंसाको कौन मानेगा कि वह उससे चौथाई भी प्रबल है ? लेकिन, फिर भी, हम क्रोधको कहेगे प्रसव, हिंसाको कहेगे असत् ।
किसीको असत् कह कर व्यक्तिके ऊपर जिम्मेदारी या जाती है कि वह सिद्ध करे, अपने आचरण और उदाहरणद्वारा प्रमाणित करे, कि जिसको उसने सत् माना है वह उससे कहीं शक्तिशाली है— अर्थात् क्रोध शान्तिकी शक्तिके सामने अपदार्थ है और हिंसा हिंसाकी सात्त्विक शक्तिके आगे सदा ही पराजित है ।
मैं विश्वास करना चाहता हूँ कि इस सत् असत्के युद्धमें साहित्यिक सत्के पक्ष में अपनेको खपायेगे; यानी लिखेगे तो उसपर आरूढ़ भी होगे । इस भावना के साथ
नवंबर १९३४
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आपका
जैनेन्द्रकुमार
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