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काम है, उसमें चोरको फाँसी देनेवाला न्यायाधीश और चोर स्वयं एक हों, सबमें ईश्वबहो, इसीका नाम साहित्य है।
समन्वय करते करते वस्तुओके प्रति द्वंद्वका भाव नष्ट हो जाय । महात्माजीने अपने एक रिकार्डमें कहा है कि जो है सो परमात्मा है। फिर यह पाप और पुण्य क्या है ? परमात्मा से पाप कैसे आया ! बात यह है कि पाप भी है और पुण्य भी है, फिर भी, पापके खिलाफ लड़ते रहो । समाधान श्रद्धासे ही मिलता है। इसी स्वर्गीय समाधानमें साहित्यकी सिद्धि है।
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लेखकके प्रति यह तत्त्व लेखक बननेकी इच्छा रखनेवाले प्रत्येक महाशयको जान लेना चाहिए कि रामचन्द्रजीको मूर्त रूपमे प्रस्तुत करनेमें ऋषि वाल्मीकिने अपनी पवित्रतम भावनाएँ और उच्चतम विचार और श्रेष्ठतम अंशका दान दिया । वाल्मीकिमें जो सर्वोत्कृष्ट है, वही राम है। लेखककी महत्ता यही है कि जो उसमें सुन्दर है, शिव है, सत्य है, जो उसमे उत्कृष्ट है और विराट् है उसीको वह सबके अर्थ दे जाय। उसे अपना और अपने नामका मोह न हो, वह अपने आदर्शके प्रति सच्चा हो, स्वप्नके प्रति खरा हो । उसका आदर्श ही अमर होकर विराजे, पूजनीय हो,—इसीमे लेखककी संतृप्ति है सफलता और सार्थकता है।
मेरी इच्छा है कि जो लेखक बने वह पाठकको वह दे जो उसके पास अधिकसे भाधिक मार्मिक है, स्वच्छ है और बृहत् है ।
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