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साहित्य और साधना
साहित्यकी सृष्टि कर सकते हैं; यदि नहीं, तो वह व्यर्थ है, उसमें केवल दो-चार बुद्धिवादी मनुष्य ही श्रानन्द पा सकते हैं । जीवनसे अनपेक्षित होकर साहित्य न ज़िन्दा रहा है, न रह सकता है । जीवनकी जितनी समस्याएँ है वे हमारे सामने जीवित समस्याके रूपमे उपस्थित हों । वाल्मीकि और तुलसी आदि कोई बड़े विद्वान् न थे,— 1 जो साहित्यके धुरन्धरचूड़ामणि कहलाते है, उन जैसे विद्वान् न थे, वे तो सन्त थे । वे ही हमारे लिए सुन्दरसे सुन्दर साहित्य छोड़ गये हैं। और उनका जीवन विश्वके हितके लिए बलिदान हो गया है। हमारा और साहित्यका जो सम्बन्ध रहा है वह किताबका विषय बना हुआ है, जीवनका नहीं । उसीको कुछ जीवित चीज़ बनाना होगा ।
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जो विद्वानके लिए भी गूढ़ है वह जनसाधारण के लिए साधारण हो जाता है । जो साहित्य सबसे ऊँचे दर्जेका है वह विद्वानके लिए उतना ही सुन्दर है जितना जनसाधारणके लिए । फिर भी, उसमें इतनी गूढ़ता है कि उसकी सचाईका अन्त नहीं है । भाषा चाहे जैसी हो, भावना और शैली चाहे जैसी हो, व्याकरणकी कठिनता भी न हो, किन्तु, वह जीवनकी, हृदयकी चीज़ जरूर हो। वह हमारी कमजोरियों की दीवारमे झरोखे पैदा कर दे जिसमे शुद्ध हवा आने-जाने लग जाय | बीमारके लिए स्वच्छ हवा कैसे हानिकारक है ? मनुष्य - मनुष्य के बीचमें जो दीवारे खड़ी कर दी गई है साहित्य उनमे खिड़कियाँ खोल देगा। उनके बीचसे निकलेगा और वह राजाके बीच हरिजनों और किसानोंका चित्रण करेगा । राजाका चित्रण उसी स्वाभाविक रीति से होगा जिससे किसानका भी चित्र प्रतिबिम्बित हो । सब मनुष्य हैं, सब एक है, यही साहित्यका
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