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साहित्य और साधना
भाइयो,
__साहित्यके सम्बन्धमे मैने कुछ पढ़ा नही है, किन्तु, इस बातका मुझे गर्व है कि जो प्रेमके ढाई अक्षर पढ लेता है वही साहित्यिक है । इसे आज मै प्रत्यक्ष अनुभव करता हूँ । साहित्यकके क्षेत्रमें पुस्तकोका ज्ञान उतना आवश्यक नहीं है जितनी आवश्यकता है साधना और उपासनाकी । विश्वके हितके साथ एकाकार हो जाय, यही जीवनका लक्ष्य है । बाह्य जीवनसे अंतर-जीवनका सामंजस्य हो, इस सत्यको प्रत्यक्ष करनेमे ही जीवनकी सार्थकता है। ग्रन्थोके पढ़नेसे हममें बड़ा विभेद उत्पन्न हो जाता है । साधनाका विषय है साहित्य । आप वर्णमाला भी चाहे न जानें, आपको एक अक्षरका भी ज्ञान न हो, किन्तु, आपके मुखसे कोई वाणी उद्भूत हो और, सम्भव है, आपमेका कवि बोल उठे । वह वाणी सबके हृदयोको प्लावित कर देती है, वह पढ़ने या पढ़ानेसे प्राप्त नहीं हो सकती, उससे तो इसका कोई सम्बन्ध ही नहीं । साहित्यका सीधा सम्बन्ध साधनासे है। साहित्य यदि लिखनेकी चीज होती तो वहुत बड़ी चीज होती। पर, यदि वह लिखनेकी ही चीज होती तो मेरे हृदयकी चीज नहीं हो सकती । हमारी भावनाएँ आत्मासे निकलती है, जहाँ उनका व्यक्तीकरण हुआ वही साहित्य हुआ। जीवन तो उसके बादकी बात है।
जब तक सत्यान्वेषणकी प्रवृत्ति हममें है तब तक हम सुन्दर + इन्दोर-'हिन्दी साहित्य-सम्मेलन' के भापणका अश | ४४