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दो, जिससे कि लोगोके छोटे छोटे दिल कैदसे मुक्ति पायें और प्रेमसे भरकर वे अनन्त शून्यकी ओर उठे।
अभी चरचा हुई कि क्या लिखें, क्या न लिखें। कुछ लोग इसको साफ़ जानते है; पर, मेरी समझ तो कुंठित होकर रह जाती है। मैं अपनेसे पूछता रहता हूँ कि सत्य कहाँ नहीं है ? क्या है जो परमात्मासे शून्य है ? क्या परमात्मा अखिल-व्यापी नहीं है ? फिर जहाँ हूँ, वहाँ ही उसे क्यों न पा लूँ ! मायूँ किसकी ओर ? क्या किसी वस्तु-विशेषमें वह सत्य इतनी अधिकतासे है कि वह दूसरेमें रह ही न जाय ? ऐसा नहीं है । अतः निषिद्ध कुछ भी नहीं है । निषिद्ध हमारा दम्भ है, निषिद्ध हमारा अहंकार है, निषिद्ध हमारी आसक्ति है। पाप कहीं बाहर नहीं है, वह भीतर है। उस पापको लेकर हम सुन्दरको बीभत्स बना सकते है और भीतरके प्रकाशके सहारे हम घृण्यमें सौन्दर्यका दर्शन कर सकते हैं।
एक बार दिल्लीकी गलियोंमे आँखके सामने एक अजब ग्य आ गया। देखता हूँ कि एक लड़की है । बेगाना चली जा रही है। पागल है। अठारह-बीस वर्षकी होगी। सिरके बाल कटे है । नाकसे व वह रहा है । काली है, अपरूप उसका रूप है। हाथ और बदनमें कीच लगी है । मुंहसे लार टपक रही है। वह बिल्कुल नग्न है | मैने उसे देखा, और मन मिचला आया। अपने ऊपरसे काबू मेरा उठ जाने लगा। मैने लगभग अपनी आँखे मींच ली और झटपट रास्ता काटकर मैं निकल गया। मेरा मन ग्लानिसे भर आया था । कुछ भीतर बेहद खीझ थी, त्रास था। जी घिनसे खिन्न था। काफी देर तक मेरे मनपर वह खीज छाई रही; किन्तु, स्वस्थ होनेके