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किसके लिए लिखें?
लेकिन, प्रश्न तो है, हम किसके लिए लिखें ? साहित्यिक उद्यमी होनेके नाते क्या दिशा हम उसे दे ! क्या सब अंधाधुंध चलने दें ? हमारे युवक बिगड़ते हैं, स्त्रियाँ विपथगा होती है, भृष्टाचार फैलता है, यह होने दें ? और तब, जब, दुर्भाग्यसे, संपादककी ज़िम्मेदारी हमारे अनुद्यत कंधोंपर रक्खी है, और हमें कुछ न कुछ बनाना होता है।
किसके लिए लिखें ! -यह सोचते हुए जब यहाँ पहुँचता हूँ कि दुनियाकी भलाईके लिए लिखो, तब मुझे ग्लानि होती है। ध्यान आता है कि हर मिनट जीनेके लिए मैं जिसका ऋणी हूँ,-आज उसका उपकारक, उद्धारक होने चला हूँ और भलाई करूँ, इसमेंसे पर्याप्त प्रेरणा भी नहीं प्राप्त होती। अपने सुखके लिए लिखू, तो नही जानता कि लिखनेमें मुझे सुख होता है या नहीं। और मुझे सुख होता भी है तो तब, जब पाता हूँ कि छपकर वह बात सैकड़ोंके पास पहुँच गई है,'और दो-एक तारीफ भी कर रहे है । मुझे सुख भी तो 'मुझसे दूसरे सुख पा रहे हैं ', यह जानकर ही होता है। अच्छा, और जो किसीने तारीफ़ नहीं की, बल्कि मेरी रचनाकी कुछ बुराई ही हुई, तो क्या मैं न लिखू ? अपने सुखके लिए लिखू तो, ऐसी हालतमे, मुझमें लिखनेकी प्रेरणा शेष नहीं रहेगी। ___ अपने लिए लिखें, या परायेके लिए ?' जब यह प्रश्न इसी भाँति दो-मुखी होकर मेरे सामने खड़ा रहा, मुझे सूझा नहीं कि मै उसपर चलूँ या इसपर ( और दोनोंसे बच निकलनेकी राह कहाँ थी!) तब मालूम हुआ-अरे, अपने अहंकारमें भरा मैं यह क्यों नहीं सोचता कि एक वह भी तो है जहाँ पराया भी अपना है और