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आलोचकके प्रति
कई बातें जो आलोचकको उलझाती हैं अपनी ख़ातिर इतनी ध्यान देने योग्य नहीं हैं। उन्हें जल्दी पार कर लें।
पहली बात है भाषा । भाषापर मै किसीको रोकना नहीं चाहता हूँ। भाषा है माध्यम,-मन उलझा है तो भाषा सुलझी कैसे बनेगी ! इसलिए, भाषाके निमित्तको लेकर भी ध्यान यदि मनका रक्खा जाय, तो क्या उत्तम न हो ! मनके भीतरसे भाषाका परिष्कार स्थायी होगा। पर, एक कठिनाई भी है। वह यह कि गहन गहराईमें उतरकर चलना ऐसा सरल नहीं होता जैसा ऊपर मैदानमें चलना । लिखना क्यों है ? अपने भीतरकी उलझनोंको खोलनेके लिए ही तो वह है। वहाँ भीतर बड़ी अँधेरी गलियाँ हैं, वहाँ प्रकाश हो जाय तो बात ही क्या ? इससे, वहाँ पैठकर राह खोजनेवालेकी गति कुछ धीमी या कुछ दुर्बोध या चकरीली-सी हो जाय तो क्षम्य मानना चाहिए । यह उसके लिए गर्वकी बात नहीं है, लाचारीकी बात है। __ आलोचकको एक नई कृतिमें भाषाके प्रयोग कहीं कुछ अनहोनेसे लगेंगे ही। ऐसा न होना चिंताका विषय हो सकता है, होना तो स्वाभाविक है । प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है । उसकी वह अद्वितीयता खुरचकर मिटानेसे भी बाहरसे और भीतरसे नहीं मिट सकती। राह यही है कि विनम्र भावसे उस अद्वितीयताके साथ
* 'सुनीता' की आलोचना करनेवाले आलोचककोको लक्ष्य करके लिखा गया।