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सम्पादकके प्रति
('विद्या' के सम्पादकको )
भाई, आपका पत्र मिला, क्या यह जबर्दस्ती नहीं है कि आप जो माँगें वही मुझे देना हो ! आप कहानी चाहते है । तत्त्वको तात्त्विक 1 ही न रहने देकर जब उसे व्यवहारगत उदाहरणका रूप दिया जाता है, तब वह कहानी बन जाता है। इसमें उसकी गरिष्ठता कम हो जाती है, रोचकता बढ़ती है । तत्त्व कुछ कठिन, ठोस, वजनदार चीज़ जँचती है । कहानीकी शकलमें वही हल्की, रंगीन, दिलचस्प काल्पनिक वस्तु बन जाती है ।
पर आपकी 'विद्या' उत्कृष्ट कोटिकी होनेका संकल्प उठाकर आनेवाली है । ऐसी हालत में, मै शिक्षितों और विद्वानोंका अपमान नहीं करूँगा, अर्थात, कहानी नहीं लिखूँगा । और, कुछ ऐसे शब्द ही लिख सकूँगा जो शिक्षितोंकी शिक्षाके अनुरूप बेरंग हों और भूलें भी सरल न हो ।
सच यह है, दुनियाँ में द्वन्द्व दिखाई देता है । मनमें भी द्वन्द्व है, बाहर भी द्वन्द्व है। बाहरके द्वन्द्वको कुछ लोग व्यक्तियोंकी लड़ाई समझते है, कुछ वर्गों और जातियोंका संघर्ष मान लेकर अपना समाधान करते हैं । कुछ और विचक्षण लोग उसे सिद्धान्तोंकी लड़ाई समझते है । वे लोग राजाओं और राजवंशोंके कृत्योंकी तारीखोंसे भरे हुए इतिहासको पढ़ पढ़कर, उसमेंसे सिद्धान्त निकालते हैं । इतिहास, उनके निकट, अमुक सिद्धान्त, अमुक तत्त्वके क्रम विकासको संपन्न करनेवाली अतीत क्रियाका नाम है। उस तमाम इतिहासमें उनके निकट एक अनुक्रम है, निश्चित निर्देश है, एक तर्क है ।
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