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साहित्य और समाज
जो समाजके प्रति विद्रोही है, समाजकी नीति-धर्मकी मर्यादाओंकी रक्षाकी जिम्मेदारी अपने ऊपर . न लेकर अपनी ही राह चला चल रहा है, जो बहिष्कृत है और दण्डनीय है, ऐसा आदमी भी साहित्य-सृजनके लिए आज एकदम अयोग्य नही ठहराया जा सकता । प्रत्युत देखा गया है कि ऐसे लोग भी है जो आज दुतकारे जाते हैं, पर अपनी अनोखी लगन और अपने निराले विचारसाहित्यके कारण कल वे ही आदर्श भी मान लिये जाते है। वे लोग जो विश्वके साहित्याकाशमें धुतिमान् नक्षत्रोंकी भाँति प्रकाशित है, बहुधा ऐसे थे जो आरम्भमें तिरस्कृत रहे, पर, अन्तमें उसी समाजद्वारा गौरवान्वित हुए। उन्होने अपने जीवन-विकासमें समाजकी लाञ्छनाकी वैसे ही परवा नहीं की, जैसे समाजके गौरवकी । उनके कल्पनाशील हृदयने अपने लिए एक आदर्श स्थापित कर लिया और बस, वे उसीकी ओर सीधी रेखामें बढ़ते रहे । यह समाजका काम था कि उनकी अवज्ञा करे अथवा पूजा करे । उन व्यक्तियोने अपना काम इतना ही रक्खा कि जो अपने भीतर हृद्गत लौ जलती हुई उन्होंने पाई, उसको बुझने न दें और निरन्तर उसके प्रति होम होते रहें। समाजने उन्हें आरम्भमें दरिद्र रक्खा, 'ठीक । अशिष्ट कहा, अनुत्तरदायी समझा, यातनायें तक दी, हँसी उड़ाई,यह सभी कुछ ठीक । किन्तु, जो कल्याण-मार्ग उन्होंने थामा उसीपर वे लोग सबके प्रति, आशीर्वादसे भरे ऐसे अविचल भावसे चलते रहे कि समाजको दीख पड़ा कि उनके साथ कोई सत्-शक्ति है, जब कि, समाजकी अपनी मान्यताओं में सुधारकी आवश्यकता है। । ।
ऐसे लोग पहले तिरस्कृत हुए, फिर पूजित हुए । संसारके महा