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विज्ञान और साहित्य
चारों ओरके सम्बन्धोंसे तोड़कर उसे समझनेकी चेष्टा की, और जिसका परिणाम जीवनके रस और नीतिसे, इस प्रकार, अधिकाधिक विच्छिन्न होकर प्रकट हुआ कि जिससे अनुभूति कम और यत्न अधिक व्यक्त हुआ, और जो अन्ततः रेखाबद्ध और फार्मूला-बद्ध विद्या हो पड़ी, वही वस्तु है विज्ञान । ___मनुष्यके विकास-आरम्भके पर्याप्त कालके अनन्तर विज्ञानका प्रादुर्भाव हुआ। आदिमें तो विज्ञानको भी अनुभूति-मय रखनेकी चेष्टा रही । अर्थात् रूपकों, कहानियों और श्लोकोद्वारा उसे प्रकट किया गया। बहुत पीछे जाकर, उसे व्यवस्था-बद्ध विज्ञानका वह रूप मिला जो जीवनकी असली आवश्यकतासे विच्छिन्न हो गया।
इसके विरोधमें जब मानवने अपने व्यक्तित्वके पूरे जोरसे विश्वको अपनानेकी चेष्टाको शब्दोंमें व्यक्त किया, जो शुद्ध अनुभूतिमय है, जहाँ लगभग स्रष्टा ज्ञाता है ही नहीं वरन् वह अपनी सृष्टिसे एकाकार है, जहाँ सम्बन्ध सिरजनका है जाननेका नहीं, जहाँ ज्ञाता
और ज्ञेयका पार्थक्य नहीं है और जहाँ स्रष्टा और सृष्टिकी एकता है, वह है साहित्य ।
इस तरह विज्ञान प्रथमावस्थामें साहित्य है।
और अपनी अन्तिम अवस्थामें भी,---जब वह केवल बुद्धिका व्यापार नहीं है, और जब वह प्रसाद-मय, रहस्य-मय, और मानों ईश्वराभिमुख है, वह साहित्य है।
कहा गया है जानना ही बनना है,-Knowing is becoming: जहाँ जाननेका स्वरूप बनते जानेका है, जहाँ ज्ञान संग्रहसे अधिक रचना करता है वहाँ विज्ञान शुद्ध ज्ञान है और साहित्य भी शुद्ध ज्ञान है, अर्थात् एक विज्ञान है।