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विज्ञान और साहित्य
चन्द्रमामें कुछ काला-काला-सा दीखता है। हमारी कल्पना, जिसमें आत्मीय भावकी शक्ति है, झट वहाँतक दौड़ गई । और उसने कहा
' वहाँ बैठी बुढ़िया चर्खा कात रही है।' और कह दिया । यह कहकर मानों हमने लिया है, ऐसी प्रसन्नता मनको हुई ।
दूसरेने ऐसा ही कुछ सचमुच कुछ तथ्य पा
पर उमरवाले बालकने फिर कहा, 'नहीं नहीं, मेरे टेलिस्कोपमें जो दीखेगा चाँदका काला काला दाग़ वही है। जबतक साफ़ साफ़ उसमे कुछ नहीं दीखता तबतक कुछ मत कहो । यह तुम क्या चर्खेवाली बुढ़ियाकी वाहियात बात कहते हो ! '
जब शनैः शनैः इस प्रकार विश्वको आत्मसात् करनेकी मानवकी प्रक्रियामें यह द्विविधा याती चली, उसी समयसे मनुष्य के ज्ञानमे भी विभक्तीकरण हो चला। इससे पहिले जो था, सब साहित्य था । उस समय मनुष्य ज्ञाता और शेष विश्व ज्ञेय न था । वह भी विश्वका अंश जैसा था । उसमें अहम् सर्वप्रधान होकर व्यक्त न हुआ था। प्रकृति सचेतन थी और जगत् विराट्मय था । पंचतत्र देवता - रूप थे और भिन्न भिन्न पदार्थ उनके प्रकाश-स्वरूप । तब विश्व मानो एक परिवार धा और मानव उसका एक एक सदस्य । मानो विराटकी गोद में बैठा हुआ वह एक बालक था ।
उस समय उसकी समस्त धारणाएँ अस्पष्ट थी अवश्य, पर अनिवार्य रूपमें अनुभूतिसूचक थीं, प्रसादमय थीं ।
आदमीने चकमकके दो टुकड़ोंको रगड़कर अग्नि पैदा की । पर उसने यह नहीं कहा, ' चकमकके टुकड़ोंको रगड़ा इससे भाग पैदा हुई है।' उसने नहीं कहा, 'देखो, मैं इस तरह याग पैदा कर लेता
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