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पुरुषोंके चरित्रोमें यही देखनेमें आता है । समाजके साथ उनका नाता गुलामीका नहीं होता, नेतृत्वका होता है। वे अपनी राह चलते है। समाज उनपर हँसता है, किन्तु, फिर उन्हींके उदाहरणसे अपनी आगेकी राहको प्रकाशित भी पाता है।
काल-भेदकी अपेक्षा हमने साहित्यकी , प्रकृतिमे भेद चीन्हा । किन्तु, गुण-भेदसे भी साहित्यमें दो प्रकार देखे जा सकते हैं। एक वह जो समाजके स्थायित्वके लिए आवश्यक है, दूसरा वह जो समाजको प्रगतिशील बनाता है।
साहित्य दोनो प्रकारके आवश्यक हैं। लेकिन, यदि अधिक आवश्यक, अधिक सप्राण, अधिक साधनाशील और अधिक चिरस्थायी किसीको हम कहना ही चाहें तो उस साहित्यको कहना होगा जो अपने ऊपर खतरे स्वीकार करता है, और, चाहे चावुककी चोटसे क्यों न हो, समाजको आगे बढ़ता है । वह साहित्य आदर्श-प्राण होता है, भविष्यदर्शी होता है, चिरनूतन होता है, किन्तु, ऐसा साहित्य सहज मान्य नहीं होता।
समाजमें दो तत्त्व काम करते हुए दीखते है। समाजके सब व्यक्ति न्यूनाधिक रूपमे इन्हीं दोनों तत्त्वोके प्रतिनिधि समझे जा सकते है। एक ग्राहक है, एक विकीर्णक । एक व्यक्तित्वशून्य, एक सव्यक्तित्व । एक वह जो अपने भीतर ही अपना केन्द्र अनुभव करता है; दूसरा वह जो अपने परिचालनके लिए अपनेसे बाहर देखनेकी अपेक्षा रखता है । एक गतिशील, दूसरा संवरणशील ।
सामाजिक जीवन अथवा समाजका व्यक्ति इन्हीं दोनों तत्त्वोंके न्यूनाधिक अनुपातका सम्मिश्रण है । एक ओर गाँवका बनिया है