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विज्ञान और साहित्य ज्ञानकी प्राथमिक अवस्थामें मनुष्यके निकट स्वप्न और सत्यमे अधिक भेद न था । जो उसने सपनेमें देखा, जो कल्पना की, उसे ही सच मान लिया । और जिसको आजकल हम वास्तव कहकर चीन्हते हैं,-पत्थर, धातु, आदमी, समाज, सरकार,—ये सब-कुछ उसके लिए उतना ही अवास्तव अथवा संदेहास्पद था जितना कि उसका स्वप्न ।। ___ आँख खोलते ही उसने देखा,—सूरज है जो चमकता है। उसने तुरन्त कहा, 'सूरज बड़ा कान्तिमान् देवता है।' उसने और भी देखा कि सूरज पूरबमें उगता और पच्छिममें डूबता है, इस तरह वह चलता भी है, और उसने कहा 'सूरज देवताके रथमें सात घोड़े है जो उसे तेनीसे खींचते है ।' यो आदिम मनुष्यने जब सूर्यको देखा तब उसे बाह्लाद हुआ, विस्मय हुआ, भक्ति हुई और सूरजके सम्बन्धमें उसने जो धारणा बनाई उसमे ये सब भाव किसी न किसी प्रकार व्यक्त हुए । सूर्य उसके निकट एक पदार्थ-मात्र न रहा जो ज्ञान-गम्य ही हो, वह उसके निकट देवता बन गया । ___ आँख मींचनेपर उसने सपने देखे । देखा, वह पक्षीकी तरह उड़ सकता है, मछलीकी तरह पानीमे तैर सकता है,-पल-भरमें सागरोंको वह पार कर गया, सागरोंके पार हरियाली ही हरियाली है और वहाँ मीठी बयार चलती है। उसने झटसे कहा, 'वह है स्वर्ग। वहाँ अत्यन्त स्वरूपवान् व्यक्ति बसते हैं, वहाँ दुःख है नहीं, प्रमोद ही प्रमोद है।'