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साहित्य क्या है?
विफलता की, क्रिया की, प्रतिक्रिया की, हर्ष, क्षोम, विस्मय, भीति, आह्लाद, घृणा और प्रेम,—सब भाँतिकी अनुभूतियाँ जातिके शरीरने और इतिहासने भोगी, और वे जातिके जीवन और भविष्यमें मिल गई । भाँति-भाँतिसे मनुष्यने उन्हें अपनाया, और व्यक्त किया । मंदिर बने, तीर्थ बने, घाट बने,—वेद, शास्त्र, पुराण, स्तोत्र-प्रन्थ बने, शिलालेख लिखे गये, स्तम्भ खड़े हुए, मूर्तियाँ बनी और स्तूप निर्मित हुए । मनुष्यने अपने हृदयके भीतर विश्वको यथासाध्य खींचकर जो जो अनुभूतियाँ पाई,-मिट्टी, पत्थर, धातु अथवा ध्वनि एवं भाषा आदिको उपादान बनाकर, उन्हें ही रख जानेकी उसने चेष्टा की । परिणाममे, हमारे पास ग्रन्थोका अटूट, अतोल संग्रह है, और जाने क्या क्या नहीं है।
मानव-जातिकी इस अनन्त निधिमें जितना कुछ अनुभूति-भाण्डार लिपिबद्ध है, वही साहित्य है। और भी, अक्षर-बद्ध रूपमें जो अनुभूति-संचय विश्वको प्राप्त होता रहेगा, वह होगा साहित्य ।
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