Book Title: Jainendra ke Vichar
Author(s): Prabhakar Machve
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 13
________________ इस प्रकार अहंकारकी टेक बनाकर, अपनेको तुद्र और सबसे अलग करके वह जीने लगा । अर्थात् , सब प्रकारकी समस्याएँ खड़ी करके उनके बीचमे उलझा हुआ वह जीने लगा। विश्वके साथ विभेद-वृत्ति ही,,उसके जीनेकी शर्त बनकर, उसके भीतर अपनेको चरितार्थ करने लगी। __ पर, इस जीवनमे एक अतृप्ति वनी रही जो विश्वके साथ मानो अभेदकी अनुभूति पानेको भूखी थी। अहंकारसे घिरकर वह अपने क्षुद्रत्वके अवबोधसे त्रस्त हुआ,-यों ही विराटसे एक होकर अपने भीतर भी विराटताकी अनुभूति जगानेकी व्यग्रता उसमे उत्पन्न हुई। इस व्यग्रताको वह भाँति-भाँतिसे शान्त करने लगा। यहींसे धर्म, कला, साहित्य, विज्ञान, सब उत्पन्न हुए। यह अभेद-अनुभूति उसके लिए जब इष्ट और सत्य हुई ही.थी तभी विभेद आया। एक आदर्श था तो दूसरा व्यवहार। एक भविष्य था तो दूसरा वर्तमान । इन्हीं दोनोके संघर्ष और समन्वयमेंसे मनुष्य प्राणांके जीवनका इतिहास चला और विकास प्रगटा। ___ मनुष्यकी मनुष्यके साथ, समाजके साथ, राष्ट्रके और विश्व के साथ, (और इस तरह स्वयं अपने साथ ) जो एक सुन्दर सामंजस्य,एकस्वरता, (=Harmony) स्थापित करनेकी चेष्टा चिरकालसे चली आ रही है, वही मनुष्य जातिकी समस्त संग्रहीत निधिकी मूल है । अर्थात्, मनुष्यके लिए जो कुछ उपयोगी, मूल्यवान् , सारभूत आज है, वह ज्ञात और अज्ञात रूपमें उसी एक सत्य-चेष्टाका प्रतिफल है। इस प्रक्रियामें मनुष्य जातिने नाना भॉतिकी अनुभूतियोका भोग किया। सफलता की,

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