Book Title: Jainendra ke Vichar
Author(s): Prabhakar Machve
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 12
________________ साहित्य क्या है? इसी ढंगसे क्षुद्ने अपना जीवन सम्भव बनाया। किन्तु, जीवनकी इस सम्भावनामें ही विराट और क्षुद्र, अनन्त और ससीमका अभेद सम्पन्न होता दीखा । वह अभेद यह है, जो कुछ है वह क्षुद्र नहीं है पर विराटका ही अंश है, उसका बालक है, अतः स्वयं विराट् है। ___ धूप चमकी, तो वृक्षने मनुष्यसे कहा, 'मेरी छायामे आ जाओ,' बादलोसे पानी बरसा तो पर्वतने कंदरामे सूखा स्थल प्रस्तुत किया और मानो कहा, 'डरो मत, यह मेरी गोद तो है।' प्यास लगी तो झरनेके जलने अपनेको पेश किया । मनुष्यका चित्त खिन्न हुआ और सामने अपनी टहनीपरसे खिले गुलाबने कहा, 'भाई, मुझे देखो, दुनिया खिलनेके लिए है।' साँझकी बेलामें मनुष्यको कुछ भीनी-सी याद आई, और आमके पेड़परसे कोयल बोल उठी, 'कू-ऊ, कू-ऊ ।' मिट्टीने कहा ' मुझे खोदकर, ठोक-पीटकर, घर बनाओ, मै तुम्हारी रक्षा करूँगी।' धूपने कहा, 'सर्दी लगेगी तो सेवाके लिए मैं हूँ।' पानी खिलखिलाता बोला, 'घबड़ाओ मत, मुझमें नहाओगे तो हरे हो जाओगे।' __ मनुष्य प्राणीने देखा-दुनिया है, पर वह सब उसके साथ है। फिर भी, धूपको वह समझ न सका, वर्षाके जलको, मिट्टीको, फूलको,-किसीको भी वह पूरी तरह समझ न सका। क्या वे सब आत्मसमर्पणके लिए तैयार नहीं है ! पर, उस क्षुद्रने अहंकारके साथ कहा, 'ठहरो, मै तुम सबको देख लूँगा । मैं 'मैं' हूँ, और मैं जीऊँगा।'

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