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आदि प्राच्य भाषाओं में प्रणीत जैन विद्या सम्बन्धी ग्रन्थों पर ठोस कार्य कराएँ और उसे समस्त विद्वज्जगत् के लाभार्थ प्रकाशित करें। बड़ा दुःख है अभी संस्थाएँ भी संकीर्णता के दायरे से उतनी ऊँची नहीं उठ पाई हैं, जितना उठना चाहिए। तभी तो ऐसा हो रहा है कि विद्वानों का जितना जहाँ, जैसा उपयोग होना चाहिए, हो नहीं पाता।
पूजनीया महासती जी और समादरणीय विद्वत् साथी डॉ० शास्त्री जी का यह श्रुतसेवी प्रयास मुझे बहुत प्रीतिकर लग रहा है । मैं इसका हृदय से अभिनन्दन करता हूँ।
डॉ० शास्त्री जी को संपादन शैली, अनुवादन-विवेचन शैली अपनी असामान्य विशेषताएँ लिये हुए है । वे हिन्दी के प्रबुद्ध लेखक हैं । संस्कृत या प्राकृत में संग्रथित मूल भाव को हिन्दी में जिस निपुणता तथा कौशल के साथ उपस्थापित करने में वे समर्थ हैं, वह सर्वथा स्तुत्य है । मैं आशा करूँगा, उनकी सशक्त, साधना-निष्णात लेखनी से और भी अनेक ग्रन्थ-रत्न प्रकाश में आयेंगे।
आशा है, पाठक प्रस्तुत ग्रन्थ द्वारा भारत के एक महान् आचार्य की महान् ज्ञानसंपदा से निश्चय ही लाभान्वित होंगे।
सरस्वती-विहार, जबलपुर
-डॉ. विमल प्रकाश जैन एम० ए० (संस्कृत, कार्तिक पूर्णिमा, वि० सं० २०३८ पालि, प्राकृत तथा जैनोलोजी). पी-एच० डी०
रीडर-संस्कृत–पालि-प्राकृत विभाग,
जबलपुर विश्वविद्यालय, (जबलपुर)
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