________________
(
२५
)
करता जाता हूँ, उस महामहिम प्रज्ञा धनी के प्रति श्रद्धावनत हो जाता हूँ। वर्षों से मेरी इच्छा रही है, आचार्य हरिभद्र पर मैं कुछ कार्य करूं । इसे कर्मान्तराय ही कहूँगा कि हृदय से चाहने पर भी अब तक वैसा कुछ प्रस्तुत कर नहीं सका ।।
____मुझे बहुत प्रसन्नता है, मेरे अत्यन्त निकटवर्ती आत्मीय विद्वान्, जो वर्षों मेरे साथ रहे हैं, जिनकी प्रतिभा और उद्यमशीलता का मैं सदा प्रशंसक रहा हूँ, सुहृदवर डॉ. छगनलाल जी शास्त्री, एम. ए., पी-एच. डी. ने स्वनामधन्य आचार्य हरिभद्र को अपने अध्येय विषयों में स्वीकार किया।
मुझे यह व्यक्त करते हए अत्यन्त हर्ष हो रहा है, कि श्री स्थानकवासी जैन समाज के बहुश्रुत युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी की सत्प्रेरणा एवं प्रोत्साहन से, जैन जगत् की सुप्रसिद्ध विदुषी, महान् साधिका तथा कुशल लेखिका परमपूजनीया महासती श्री उमरावकुवर जी म. 'अर्चना' के पावन पथ-दर्शन और संयोजन में डॉ. छगनलाल जी शास्त्री ने मेरे आराध्य, प्रातःस्मरणीय आचार्य हरिभद्र के योग सम्बन्धी चारों ग्रन्थों के सम्पादन, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद तथा विवेचन का स्तुत्य कार्य किया है । इन ग्रन्थों का गुजराती एवं अंग्रेजी में तो अनुवाद, विवेचना आदि हुआ है पर जहाँ तक मेरी जानकारी है, हिन्दी में इन चारों ग्रन्थों पर वैसा कुछ कार्य नहीं हुआ। योगविशिका का बहुत पुरानी हिन्दी में एक अनुवाद देखने में आया, वह भी आज उपलब्ध नहीं है पर अन्य ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद, विवेचन दृष्टिगोचर नहीं हुआ। मैं हृदय से आभार मानता हूँ, पूजनीया महासतीजी ने निःसन्देह ऐसे पवित्र कार्य हेतु देश के एक वरिष्ठ विद्वान् को प्रेरित किया, मार्गदर्शन दिया तथा कार्य को गति प्रदान की। डॉ. शास्त्री जी को मैं हृदय से वर्धापित करता है कि उन्होंने हिन्दी जगत् के लिए वास्तव में यह बहुत बड़ा कार्य किया है। आचार्य हरिभद्र जैसे भारतीय साहित्य गगन के एक परम दिव्य तेजोमय नक्षत्र की यौगिक ज्ञानमयी दीप्ति से हिन्दी जगत् को परिचित कराने में प्रस्तुत ग्रन्थ, जिसमें इन महान् आचार्य के योगदृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक तथा योगविशिकाइन चारों कृतियों का समावेश है, बहुत उपयोगी सिद्ध होगा । जैसा मैंने ऊपर कहा है, आचार्य हरिभद्र ने योग पर अनेक दृष्टियों से मौलिक चिन्तन दिया है, जो वास्तव में अनन्य-माधारण है। योग के क्षेत्र में जिज्ञासाशील, साधनाशील, अनुसन्धानरत एवं अध्ययनरत पाठकों को अवश्य ही उससे लाभान्वित होना चाहिये । जिनको संस्कृत व प्राकृत का गहरा अध्ययन नहीं है, उन हिन्दी भाषी पाठकों के लिए अब तक ऐसा अवसर नहीं था। क्योंकि आचार्य हरिभद्र के इन चार ग्रन्थों में दो संस्कृत में और दो प्राकृत में हैं।
___ हमारे देश में जैन विद्या (Jainology) के क्षेत्र में अनेक संस्थान कार्यरत हैं । कितना अच्छा हो, डॉ० शास्त्री जी जैसे प्राच्य भाषाओं तथा प्राच्य दर्शनों के गहन अध्येता विद्वानों का समुचित उपयोग करते हुए संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org