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आचार्य हरिभद्र मेरे अध्ययन के प्रमुख विषय रहे हैं, विशेष रूप से उनकी योग-विषयक रचनाएँ । आज से २५ वर्ष पूर्व जब मैं प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली (बिहार) में प्राकृत एवं जैनोलॉजी विषय में स्नातकोत्तर अध्ययन कर रहा था, उसी समय मुझे आचार्य हरिभद्र सूरि के योग-विषयक ग्रन्थों का आद्योपान्त गम्भीर अध्ययन करने का सुयोग प्राप्त हुआ। उससे भी वर्षों पूर्व लगभग बालपन में ही मेरे हृदय में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई थी कि मुक्ति, मोक्ष, परमात्म-पद की प्राप्ति अथवा स्वयं परमात्मा बनना, अथवा ब्रह्मलीनता अथवा भगवान् की प्राप्ति अथवा निर्वाण-अवस्था की प्राप्ति, जन्म-मरण के अनादि संसार चक्र से जीव की मुक्ति की, ये जितनी दशाएँ हैं, इन्हें प्राप्त करने का क्या विश्व भर के सभी जीवों के लिए भक्ति, ज्ञान, कर्म या संन्यास का कोई एक ही मार्ग सुनिश्चित है, उसके सिवाय कोई गति नहीं है, और वैसा या वह मार्ग बताने वाला केवल एक ही धर्म सत्य है, शेष सब झूठे हैं ? अथवा ईश्वर को या ईश्वरत्व को पाने के एकाधिक उपाय, मार्ग या धर्म हो सकते हैं, और सभी जीवों को अपनी-अपनी क्षमता एवं देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार अपना-अपना मार्ग चुनने की पूर्ण स्वतन्त्रता व अधिकार है ? .... .... ... ... इत्यादि रूप से मेरी गहन उत्सुकता और उत्कण्ठा थी।
आचार्य हरिभद्र की योग-विषयक रचनाओं के अध्ययन ने मेरी उपयुक्त जिज्ञासा को इस प्रकार शान्त किया कि सत्य या ईश्वर ऐसे कोई दुर्लध्य हिमालय नहीं, जिनकी चोटी पर पहुँचने का कोई एक और केवल एक मान्न मार्ग हो, वह भी किसी एक ही दिशा से । अपितु वह तो ऐसा सूर्य है, जिसकी किरणें एक केन्द्र से उत्स्यूत होकर असीम, असंख्य, अनन्त कोणों व मार्गों से अखिल विश्वमंडल में व्याप्त होती हैं, और विपरीत क्रम से उतने ही अनन्त, असंख्य, असीम कोणों व मार्गों से जाकर उसी 'सत्य' रूपी सूर्य में विलीन हो जाती हैं। अतः धर्म भी न केवल अनेक, अपितु प्रत्येक जीव का अपना एक स्वतंत्र धर्म हो सकता है और औपचारिक धर्म, तीर्थंकरों, अवतारों, पैगम्बरों, ऋषियों व सन्तों द्वारा प्रणीत धर्म, वे शृंखलाएँ नहीं हैं, जिनमें बाँधकर जीव-सृष्टि की श्रेष्ठ कृतियों, जिनमें श्रेष्ठतम है मनुष्य, (उसे) किसी अन्धकूप में फेंक दिया जाए, अपितु वे मार्गदर्शक स्तम्भ हैं, प्रकाश की वे किरणें हैं, वे हस्त-दण्ड हैं, जिन्हें पकड़कर जिनको देखकर मनुष्य अपने उस उच्चतम, महत्तम गन्तव्य को पा सकता है, जहाँ वह सर्वतन्त्र स्वतंत्र है, और जहाँ उसकी स्वयंभू सार्वभौम सत्ता है । संसार के सभी धर्म इस लक्ष्य की सिद्धि में, अथवा जीवन के परम-सत्य की शोध में केवल उपाय भर हैं, साधन मात्र हैं साध्य नहीं, और इतनी ही धर्मों की सत्यता है, इतनी ही सार्थकता।।
आचार्य हरिभद्र के योग-विषयक ग्रन्थों से न केवल मानव धर्मों की ऐसी सारभूत एकता की बुद्धि उत्पन्न होती है, अपितु यह दृष्टि भी प्राप्त होती है कि मोक्ष से जोड़ने वाला सभी धर्म-व्यापार, सारे धार्मिक आचार- व्यवहार 'योग' हैं ।
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