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प्रस्तावना
ज्ञान, चिन्तन तथा साधना के क्षेत्र में आर्यभूमि भारत के जिन महर्षियों, मनीषियों तथा विद्वानों ने अपने अनन्य सृजन द्वारा जो अभूतपूर्व कार्य किए, उनकी गरिमा सदा अमिट रहेगी । कराल काल के थपेड़ों से उनका महत्त्व कभी व्याहत नहीं हो सकेगा। वे उस परम दिव्य 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' के समुद्बोधक, सर्वतो गरीयान्, वरीयान, महीयान् तत्त्व के पुरोधा और पुरस्कर्ता थे, जिस पर इस महान् राष्ट्र की अजर, अमर, अमल, धवल संस्कृति टिकी है । उन्हीं महान पुण्यात्मा, तपःपूत, शब्द तथा भाव के अनन्य शिल्पी महामानवों में एक थे आचार्य हरिभद्र सुरि (आठवीं शती ई०)। भारतीय वाङमय, तत्त्वदर्शन तथा साहित्य में क्षेत्र में इन्होने जो योगदान किया, वह इतना उच्च, इतना दिव्य तथा इतना पावन है कि उसकी महत्ता शब्दों में नहीं कही जा सकती। काश ! इस महान् सरस्वती-पुत्र पर शोध के सन्दर्भ में कुछ बड़ा साहित्यिक कार्य होता । किन्तु दुर्भाग्य है, जितना चाहिए, उतना अब तक हो नहीं सका है।
कितनी असाधारण प्रतिभा, सागरवत् गम्भीर अध्ययन तथा उर्वर चेतना के धनी थे वे महान् आचार्य । आगम, दर्शन, न्याय, योग तथा कथा आदि जितने विषयों पर, जिस सफलता के साथ उन्होंने लिखा, यह अतिशयोक्ति नहीं है कि वैसा लिखने वाले विद्वान् बहुत कम हए । आचार्य हरिभद्र अनेक शास्त्रों में निष्णात, प्रखर पाण्डित्य के धनी, दुर्धर्ष विद्वान् थे। जब वे सांसारिक थे, तब लौकिक गरिमा, वैभव एवं समृद्धि का वैपुल्य उन्हें स्वायत्त था । किन्तु जब अप्रतिम त्याग तितिक्षामयी श्रमणपरम्परा में उनकी आस्था परिणत हुई, तब उन्होंने एक ऐसा वैभव, माहात्म्य अजित किया, जिसकी उच्चता तक भौतिक विभूतियाँ युग-युगान्तर में भी नहीं पहुँच सकतीं। आचार्य हरिभद्र का श्रमण-जीवन जहाँ एक ओर आचार-क्रान्ति का जाज्वल्यमान प्रतीक था, दूसरी ओर ज्ञान के क्षेत्र में उनके द्वारा जिस विपुल और महान् साहित्य का सृजन हुआ, वह सदा अजर, अमर रहेगा।
अन्यान्य विषयों को न लेकर अभी मैं एक विशेष बात पर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा; जो उनके साहित्यिक कृतित्व से सम्बद्ध है। जिसकी मैं चर्चा करना चाहता हूँ, वह है जैन योग । आचार्य हरिभद्र वे प्रथम मनीषी थे, जिन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा द्वारा जैन योग के सन्दर्भ में मौलिक ग्रन्थों की रचना की।
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