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पूर्व पीठिका
जैनधर्म में शील का प्राण-प्रण से निर्वाह करने वाली स्त्रियों को 'सती' या महासती के नाम से पुकारा जाता है, ऐसी सोलह कहीं चौंसठ सतियों के नामोल्लेख भी आये हैं। 1.15 जैन श्रमणी संघ की आंतरिक व्यवस्था (विभाजन, पद, योग्यता, दायित्व, कर्तव्य)
प्रत्येक तीर्थंकर के शासनकाल में श्रमणियों का एक संगठित एवं सुविशाल संघ रहा है। किंतु जैसे श्रमण-संघ की सुव्यवस्था अनेक गणधरों में विभक्त होकर होती थी, वे गणधर अपने गणस्थ श्रमणों के अध्ययन तथा पर्यवेक्षण का कार्य करते थे, उस प्रकार सुविशाल श्रमणी-संघ का संचालन करने के लिये किस प्रकार की व्यवस्थाएँ थीं, इसका उल्लेख किसी भी आगम में नहीं मिलता। यद्यपि श्रमण संघ में श्रमणियों की संख्या श्रमणों की अपेक्षा प्रायः अधिक रही हैं, तथापि प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के समय 3 लाख श्रमणियों का नेतृत्व ब्राह्मी ने तथा भगवान महावीर के संघ में 36 हजार श्रमणियों का नेतृत्व चन्दना ने किया था। अन्य भी 22 तीर्थंकरों के शासन काल में साध्वियों की सुव्यवस्था हेतु मात्र एक साध्वी-प्रमुखा का ही उल्लेख मिलता है। जिसे 'पवत्तिणी' कहा जाता था।
आगम साहित्य में; जैसा कि पूर्व में वर्णित किया जा चुका है, श्रमणी के लिये भिक्खुणी, अज्जा, अज्जिया, समणी, निग्गंथी आदि शब्दों के प्रयोग मिलते हैं परंत इनसे श्रमणी-संघ की संगठनात्मक व्यवस्था की कोई सचना प्राप्त नहीं होती क्योंकि ये शब्द सामान्य रूप से सभी श्रमणियों के लिये सामदायिक रूप में प्रयक्त हए हैं। अन्तकृद्दशांग'56 सूत्र में 'सिस्सिणी' शब्द एवं ज्ञाताधर्मकथा'57 में 'गुरूई' शब्द हैं, जो दीक्षादाता एवं दीक्षा के लिये इच्छुक नारी के सूचक हैं। इसी प्रकार 'अज्जा' शब्द सद्यः प्रव्रजित नारी तथा प्रव्रज्या प्रदान करने वाली श्रमणी दोनों के लिये प्रयुक्त किये गये हैं परंतु ये कोई विशिष्ट शब्द नहीं थे, जिसके आधार पर तत्कालीन श्रमणियों के पद-निर्धारण का कोई क्रम निश्चित् किया जा सके। श्रमणी-संघ की सुव्यवस्था हेतु जितने भी पद हैं, वे छेदसूत्रों में ही उपलब्ध होते हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि तीर्थंकरों के समय आत्मानुशासित वृत्ति एवं साक्षात् तीर्थंकरों की उपस्थिति के कारण इस चीज की आवश्यकता महसूस नहीं हुई होगी, अथवा आंतरिक कुछ व्यवस्थाएँ बनी भी होंगी पर बाहर में उनका प्रकटीकरण नहीं हुआ होगा। 1.15.1 श्वेताम्बर परम्परा में श्रमणियों की पद-व्यवस्था
श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य छेदसूत्रों में श्रमणी के लिये अज्जा, भिक्खुणी, निग्गंथी के अतिरिक्त 'पवत्तिणी' (प्रवर्तिनी), गणिणी, 'गणावच्छेइणी', थेरी आदि पदों का उल्लेख है, भाष्य चूर्णि एवं टीकाओं में उनका विकसित रूप देखने को मिलता है, जैसे-बृहत्कल्पभाष्य में श्रमणी-संघ के पाँच पद-प्रवर्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा, क्षुल्लिका तथा इसके अतिरिक्त महत्तरिका, गणावच्छेदिका, प्रतिहारी आदि पदों का भी उल्लेख मिलता है। ये सभी पद संयमी जीवन का निर्वाह, धर्म की प्रभावना, ज्ञान की आराधना, संगठन व अनुशासन की दृढ़ता आदि उद्देश्यों को दृष्टि में रखकर दिये जाते थे।
155. श्री जयमलजी महाराज, जयवाणी, पृ. 46 प्रकाशक- सन्मति ज्ञानपीठ आगरा, संवत् 2016 156. अन्तकृद्दशांग सूत्र, वर्ग 5 157. ज्ञाताधर्मकथा सूत्र, 1/9/10
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