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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास अर्थात् जो अपने देश के नियम तथा धर्म के प्रति निष्ठावान् हैं, उन्हें 'आर्य' कहा जाता है।' आर्य' से ही 'आर्या' शब्द निष्पन्न हुआ है।
अर्धमागधीकोश एवं संक्षिप्त प्राकृत हिन्दी कोश में 'आर्यिका' को 'अज्जा' एवं उसका अर्थ साध्वी, सन्यासिनी या 'महासती किया गया है। आगम- साहित्य में साध्वी के लिये 'अज्जा' शब्द का अनेक स्थानों पर प्रयोग हुआ है। 'अज्जिया', 'अज्जया' आदि नामान्तर भी देखे जाते हैं। 149
जैन - साहित्य में 'आर्या' आर्यका, आर्यिका आदि श्रमणियों के लिये प्रयुक्त हुए शब्द हैं। लेकिन वर्तमान समय में श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियों के लिये 'साध्वी' एवं दिगम्बर- परम्परा की श्रमणियों को 'आर्यिका' शब्द से संबोधित किया जाता है। वहाँ 'आर्यिका' के लिये 'अर्जिका' उत्तर भारत में 'माताजी' कन्नड़ में 'अम्मारी' ' संबोधन भी मिलते हैं। जो मुनि से निम्न श्रेणी एवं गृहस्थ से 'उच्च श्रेणी' की प्रतीक है।
'बाईजमा '
जैन वाड्.मय में 'आर्या' शब्द साध्वी के अर्थ में इतना लाक्षणिक हो गया था, कि साध्वियों के विशेष नियमों की ओर संकेत करने वाले सूत्रों को भी 'आर्यासूत्र' कहा जाने लगा। 150
1.14.12 क्षुल्लिका ( खुड्डी )
संयम जीवन के शिखर पर चढ़ने के लिये प्रारंभिक तैयारी के रूप में मुमुक्षु स्त्रियाँ जब शैक्ष अवस्था को पार करके पाँच महाव्रतों को अंगीकार कर लेती हैं तब तीन वर्ष तक की दीक्षिता श्रमणी को 'क्षुल्लिका' कहा जाता है | St तिवरिसो होइ नवो आसोलसगं तु डहरगं बेंति ।
तरुण चत्तालीसो सत्तरि उण मज्झिमो थेरओ सेसो 1 1 1 52
निशीथसूत्र में 'क्षुल्लिका श्रमणी' के संयम व शील की सुरक्षार्थ अनेक नियम-उपनियमों का विधान किया गया है।
दिगम्बर परम्परा में 'क्षुल्लिका' को उत्कृष्ट श्राविका कहा है। पद्मपुराण में आचार्य रविषेण के 'गृहस्थ मुनि' शब्द का अर्थ टीकाकार ने 'क्षुल्लक' किया है। 53 क्षुल्लिका एक पात्रधारी अथवा पाँच पात्रधारी होती हैं। थाली आदि में बैठकर भोजन करती हैं। उनके लिये केशलोंच का नियम नहीं है, वह कैंची आदि से भी बालों को निकाल सकती है। इनके पास धातु का कमण्डलु रहता है। दिन में एक ही बार आहार लेती हैं, वह एक सफेद साड़ी के सिवाय एक चादर भी रखती हैं। 154
श्रमणी के अन्य नामों में आजकल 'सती' या 'महासती' का प्रचलन भी अधिक स्थलों पर देखा जाता है।
149. स्थानांग 5/162, समवायांग 36/3, ज्ञाता सूत्र, 1/1/85, भगवती 3/34, 9/135 से 155;
150. जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग 5, पृ. 237, प्रकाशक-सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था, बीकानेर, 1950 ई. (द्वि.सं.) 151. (क) सेहो पवज्जाभिमुो आगतो पव्वतितो वा निशीथसूत्र पीठिका, गा. 323 (ख) खुड्डगो सिसू बालो त्ति वृत्तं भवति
वही गा. 349
152. व्यवहार भाष्य गाथा 220
153. .. आसनादि प्रदानेन गृहस्थमुनि वेषभृत् पर्व 102, श्लोक 3
154. डॉ. फूलचन्द्र जैन, मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 422
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