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पूर्व पीठिका
1.14.10 साध्वी
श्रमणी के लिये वर्तमान में 'साध्वी' शब्द का प्रचलन बहुतायत से देखने को मिलता है। आमतौर से साधु शब्द का उच्चारण करते ही हमारे सामने 'मुनि, यति, श्रमण' का भाव आ जाता है और साध्वी से 'श्रमणी, आर्यिका' का। दूसरी तरफ ग्रंथ-प्रशस्तियों, प्रतिमा-लेखों आदि में 'साधु 'शब्द' साहुकार या धनी गृहस्थ के अर्थ में अधिकांशतः प्रयुक्त हुआ है, और 'साध्वी' उसकी पत्नी के लिये।
नाथूराम प्रेमी ने 'साहु' शब्द का उद्भव संस्कृत से न मानकर फारसी से माना है। उनके मतानुसार यह शब्द मुसलमान काल में लोकभाषा में प्रचलित हो गया था, 43 किंतु यह मान्यता उचित नहीं है। जैन परम्परा में मुनि, ऋषि, संत इत्यादि के पर्यायवाची के रूप में 'साधु' शब्द के प्रयोग मिलते हैं । नमस्कार मंत्र में 'सव्वसाहूणं' पाठ है जो ईसा पूर्व से मिलता है। साध्वी के लिये प्राकृत में 'साहुणी', साहुई एवं साधुणी तीनों शब्द हैं निशीथ भाष्य में कहा है
__साधुणी वि सहू, साहू वि सहू' (गा. 1754) साध्वी शब्द 'रत्नत्रयधारिण्यां श्रमण्याम्' अथवा तपस्विनी के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। 44 अभिधान राजेन्द्र कोश'45 में विभिन्न आगमों के उद्धरण देकर साधु शब्द की अनेक व्युत्पत्तियाँ की हैं
(1) 'साधयति सम्यग्दर्शनादि योगैरपवर्गमिति साधुः' (2) 'साधयति-पोषयति विशिष्टक्रियाभिरपवर्गमिति साधुः (3) 'साधयति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति साधुः' (4) 'अभिलषितम) साधयतीति साधुः (5) 'अनन्तज्ञानादि शुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः
उक्त सभी परिभाषाओं का तात्पर्य उन श्रमण-श्रमणियों से है, जो संपूर्ण दुःखों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये ज्ञान, दर्शन चारित्र की साधना करते हैं एवं जीवों पर समता भाव रखते हैं।।46 1.14.11 आर्यिका
संस्कृत-साहित्य में 'आर्य' शब्द आदरणीय, सम्माननीय अथवा उच्चपदस्थ या कुलीन व्यक्ति के विशेषण रूप में प्रयुक्त होता है।'47 संस्कृत हिन्दी कोश में आर्य शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है
'कर्त्तव्यमाचरन् कार्यमकर्त्तव्यमनाचरन् तिष्ठति प्रकृताचारे स वा 'आर्य' इति स्मृतः।148
143. भास्कर पत्रिका, पृ 82, भाग 7 किरण 2 जून 1940 144. दृष्टव्य- 'साहुणी'-अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग 7 पृ. 804 145. अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग 7 पृ 802 146. निव्वाणसाहए जोए, जम्हा साहति साहुणो। समा य सव्वभूएसु, तम्हा ते भाव साहुणो।। -आव. नि. भाग 1, गाथा 1002 147. यदार्यमस्यामभिलाषि मे मनः (शकुन्तला नाटक 2/22) 148. द.- वामन शिवराम आप्टे, पृ. 159
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