Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 10 ज्ञानानन्द श्रावकाचार रूपी अग्नि में कर्म रूपी धूप को उदार मन से बहुत-बहुत मात्रा में शीघ्रता से भली प्रकार जलाते हैं / फिर उसी में निजानन्द रूपी फल को भलीभांति प्राप्त करते हैं / इसप्रकार अष्ट द्रव्य से पूजन करते हैं। किसलिये पूजन करते हैं ? मोक्ष सुख की प्राप्ति के लिये (पूजन करते हैं)। शुद्धोपयोगी मुनि और कैसे हैं ? स्वयं तो शुद्ध स्वरूप में लग गये हैं, मार्ग में कोई भोला जानवर उन्हें काठ का ढूंठ (पेड की सुखी लकडी) जानकर उनके शरीर से खाज खुजाते हैं, फिर भी मुनिराज का उपयोग स्वभाव से चलायमान नहीं होता है, निज स्वभाव में ऐसे रत हुए हैं / हाथी, सिंह, सुअर, व्याघ्र, मृग, गाय इत्यादि बैर भाव को छोडकर सन्मुख खडे होकर नमस्कार करते हैं तथा अपने हित के लिये मुनिराज के उपदेश की चाह रखते हैं / मुनिराज द्वारा ज्ञानामृत का आचरण करने से (मुनिराज के ही) नेत्रों से अश्रुधारा बहकर (मुनिराज की) अंजुली में पडती है , तथा पडते-पडते अंजुली भर जाती है, जिसे चिडिया, कबूतर आदि भोले पक्षी जल जानकर रुचि पूर्वक पी लेते हैं। ये अश्रुपात नहीं बह रहा है, मानो आत्मिक रस झर रहा है / वह आत्मिक रस अन्दर समाया नहीं है अत: बाहर निकल पडा है / अथवा मानो कर्म रूपी बैरी को ज्ञान रूपी खडग से संहारा है, जिसका रुधिर उछल कर बाहर निकला है / शुद्धोपयोगी मुनि और कैसे हैं ? अपने ज्ञान रस से तृप्त हैं, अत: बाहर निकलने में असमर्थ हैं / कदाचित पूर्व वासना के कारण (अपने स्वरूप से) बाहर निकलते हैं तो उन्हें यह जगत इन्द्रजाल के समान भासित होता है, फिर तत्काल ही स्वरूप में चले जाते हैं / इससे आनन्द रस उत्पन्न होता है, जिससे शरीर की ऐसी दशा होती है कि रोमांच ही होता है तथा गद-गद शब्द होता है / कभी तो जगत के जीवों को (उनकी) मुद्रा उदासीन प्रतीत होती है, तथा कभी मानों निधि मिल गयी हो ऐसी हंसमुख मुद्रा प्रतिभासित होती है / मुनियों की ये दोनों दशायें अत्यन्त