________________ सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका द्रव्य अपेक्षा से तो लोक में मनुष्य जीव बहुत थोड़े हैं, तुच्छ संख्यातमात्र ही हैं और अन्य जीवों में निगोदिया अनन्त हैं, दूसरे जीव असंख्यात हैं। क्षेत्र अपेक्षा से मनुष्यों का क्षेत्र बहुत स्तोक (थोड़ा ही) अढ़ाई द्वीप मात्र है और अन्य जीवों में एकेन्द्रियों का क्षेत्र सर्व लोक है; दूसरों का कितने ही राजू प्रमाण है। ___ काल अपेक्षा से मनुष्य पर्याय में उत्कृष्ट रहने का काल स्तोक है, कर्मभूमि अपेक्षा पृथक्त्व कोटिपूर्व मात्र है और अन्य पर्याय में उत्कृष्ट रहने का काल - एकेन्द्रियों में तो असंख्यात पुद्गलपरावर्तनमात्र और अन्यों में संख्यात पल्यमात्र है। भाव अपेक्षा से तीव्र शुभाशुभपनेसे रहित ऐसे मनुष्य पर्याय के कारणरूप परिणाम होना अतिदुर्लभ हैं। अन्य पर्याय के कारण अशुभरूप वा शुभरूप परिणाम होना सुलभ हैं। इसप्रकार शास्त्राभ्यास का कारण जो पर्याप्त कर्मभूमिया मनुष्य पर्याय, उसका दुर्लभपना जानना। ___वहाँ उत्तम निवास, उच्चकुल, पूर्ण आयु, इन्द्रियों की सामर्थ्य, निरोगपना, सुसंगति, धर्मरूप अभिप्राय, बुद्धि की प्रबलता इत्यादि की प्राप्ति होना उत्तरोत्तर महादुर्लभ है। यह प्रत्यक्ष दिख रहा है और इतनी सामग्री मिले बिना ग्रन्थाभ्यास बनता नहीं है / सो तुमने भाग्य से यह अवसर पाया है; इसलिये तुमको हठ से भी तुम्हारे हित के लिये प्रेरणा करते हैं। ___ जैसे हो सके वैसे इस शास्त्र का अभ्यास करो, अन्य जीवों को जैसे बने वैसे शास्त्राभ्यास कराओ और जो जीव शास्त्राभ्यास करते हैं, उनकी अनुमोदना करो। पुस्तक लिखवाना वा पढ़ने-पढ़ानेवालों की स्थिरता करना, इत्यादि शास्त्राभ्यास के बाह्यकारण, उनका साधन करना; क्योंकि उनके द्वारा भी परम्परा कार्यसिद्धि होती है व महान पुण्य उत्पन्न होता है। इसप्रकार इस शास्त्र के अभ्यासादि में जीवों को रुचिवान किया। *