________________ गुणस्थान विभाजन होते नहीं, यह ही अपनी मान्यता से ही अपने मानता है / तथा मनुष्यादि पर्यायों में कदाचित् देवादिक का या तत्त्वों का अन्यथा स्वरूप जो कल्पित किया उसकी तो प्रतीति करता है; परन्तु यथार्थ स्वरूप जैसा है वैसी प्रतीति नहीं करता।" __ इसप्रकार पण्डितप्रवर श्री टोडरमलजी ने दर्शनमोह के उदय से होनेवाले जीव के परिणामों का वर्णन मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 38 पर किया है। इसके आधार से पात्र जीव अपने गुणस्थान का निर्णय कर सकता है - सर्वप्रथम हमें स्व-आत्मा और पर देहादि का लक्षण-भेद से यथार्थ निर्णय कर अपने शुभ-अशुभ तथा शुद्ध परिणामों को जानना चाहिए। इसके लिए आगम का अभ्यास, युक्ति का अवलम्बन और परम्परा गुरु के उपदेश का आधार लेकर निर्णय करना चाहिए। 1. हम तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानवर्ती प्रगट परमात्मा हैं; ऐसा भ्रम होने का तो किसी को अवकाश ही नहीं; क्योंकि अपने में से कोई न तो वीतरागी है, न सर्वज्ञ है और न अनंत सुखी भी। 2. जो वस्त्रों का त्याग नहीं कर पाया हो अर्थात् दिगंबर साधु अवस्था को स्वीकार नहीं किया हो, वह छठवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज तो है ही नहीं; यह भी स्पष्ट निर्णय है। 3. अब केवल प्रथम गुणस्थान से लेकर पंचम विरताविरत गुणस्थान पर्यंत पांच गुणस्थानों में अपने गुणस्थान को खोजने की बात शेष रह जाती है। ___यदि जीवन में अहिंसा आदि पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रत - इन बारह प्रकार के श्रावकोचित व्रतों का बुद्धिपूर्वक स्वीकार ही न हो तो पाँचवां विरताविरत गुणस्थान भी नहीं है। यह विषय भी हमारी समझ में आ ही रहा है। ___यदि कदाचित् किसी ने बाह्य में अणुव्रत आदि को भी स्वीकार किया हो और आत्मानुभूति/सम्यग्दर्शनपूर्वक अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण दो कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक वीतरागतारूप आनंद (सुख, धर्म, संवर, निर्जरा, मोक्षमार्ग) का अनुभव किसी को