________________ 180 गुणस्थान विवेचन 75. प्रश्न : आपने ऊपर ७३वें प्रश्न के उत्तर में कहा - “कर्मों की अपनी-अपनी योग्यतानुसार उपशमादिक कार्य होते हैं" इसका अर्थ क्या है ? उत्तर : पुद्गलमय ज्ञानावरणादि आठों ही कर्मों में अचेतनपना समान होने पर भी परिणमन स्वभाव के कारण प्रत्येक कर्म की परिणमन करने की अपनी-अपनी स्वतंत्र योग्यता होती है। विशेष स्पष्टीकरण निम्नानुसार है - 1. क्षयोपशम' तो मात्र ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय - इन चार घाति कर्मों में ही होता है; अन्य चार अघाति कर्मों में नहीं तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय - इन तीनों कर्मों का क्षयोपशम अनादि से निगोद जीवों में भी नियम से पाया जाता है। 2. अंतरकरणरूप/प्रशस्त उपशम अनन्तानुबंधी को छोड़कर दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय कर्मों में ही होता है; अन्य सातों कर्मों में नहीं। 3. सदवस्थारूप या अप्रशस्त उपशम मात्र चारों घाति कर्मों में ही होता है, अन्य चारों अघाति कर्मों में नहीं। 4. विसंयोजना मात्र अनंतानुबंधी कषायों की है. होती है; अन्य किसी भी कर्म में या अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायों की भी नहीं होती। 5. संक्रमण भी सभी कर्मों में नहीं होता। जैसे - आयुकर्म के चारों भेदों का परस्पर में संक्रमण नहीं होता। दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय में भी परस्पर संक्रमण नहीं होता। मूल कर्मों में संक्रमण नहीं होता। सजातीय प्रकृति के उत्तर भेदों में संक्रमण होता है। जैसे - साता का असातावेदनीय में। मिथ्यात्व का मिश्र में और मिश्र का सम्यक्त्व प्रकृति में; अनंतानुबंधी चारों कषायों का 12 कषाय और 9 नोकषायों में; अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण कषायों का अन्य कषायनोकषायों में आदि। 6. आयुकर्म को छोड़कर ज्ञानावरणादि सातों कर्मों का निरंतर बंध होता है। कदाचित् किसी को एक अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत आठों कर्मों का भी बंध होता है।