________________ 272 गुणस्थान विवेचन के अनुदय से व्यक्त वीतरागता के कारण उत्पन्न शुद्धपरिणति शुभोपयोग के साथ सदा बनी रहती है, इसकारण संवर-निर्जरा भी होती रहती है। इसी कारण अप्रमत्तविरत मुनिराज के समान ही प्रमत्तविरत मुनिराज भी भावलिंगी संत ही है। सातवें-अप्रमत्तविरत गुणस्थान से लेकर नववें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान पर्यंत के सभी भावलिंगी महामुनिराजों को तीन कषाय चौकड़ी (यथासंभव संज्वलन कषाय एवं नौ नोकषाय) के अनुदय से व्यक्त वीतरागरूप शुद्धोपयोग सदा बना रहता है। चौथे से छठवें गुणस्थान पर्यंत विद्यमान साधक को शुभ या अशुभरूप (छठवें गुणस्थान में कदाचित् अशुभोपयोग होता है।) उपयोग रहता है, तब व्यक्त शुद्धता सतत बनी रहती है; उसे ही शुद्धपरिणति कहते हैं। जब उपयोग निज शुद्धात्मा में लीन हो जाता है, तब वही व्यक्त शुद्धता अर्थात् वीतरागता वृद्धिंगत हो जाती है; उसे शुद्धोपयोग कहते हैं / व्यापाररूप शुद्धता शुद्धोपयोग कहलाती है और सहज निर्विकल्पशुद्धताशुद्धपरिणति कहलाती है। (5) दसवें-सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में-तीन कषायचौकड़ी और संज्वलन क्रोध, मान, माया कषायों एवं नौ नोकषायों के उपशम या क्षयरूप अभाव से उत्पन्न विशेष वीतरागतारूप (संज्वलन सूक्ष्म लोभ कषाय कर्म के सद्भाव में) शुद्धोपयोग अंतर्मुहूर्त पर्यंत रहता है। चारित्र गुण की शुद्धता अर्थात् वीतरागता का उपचार उपयोग पर करके उसे शुद्धोपयोग कहा है और उपयोग रहित शुद्धता अर्थात् वीतरागता को शुद्ध परिणति कहते हैं। सातवें गुणस्थान से दसवें गुणस्थान के अंतिम समय पर्यंत शुद्धपरिणति ही शुद्धोपयोगरूप परिवर्तित हो जाती है। (6) ग्यारहवें-उपशांत मोह और बारहवें क्षीणमोहगुणस्थान में भी वीतरागता की पूर्णता हो गयी है। अतः इन दोनों गुणस्थानों में उपयोग एवं परिणति ऐसा भेद नहीं रहता / पूर्ण वीतरागता के कारणशुद्धोपयोग पूर्ण हो गया है। (मुनि भूमिका के शुद्ध परिणति विषयकस्पष्टीकरण प्रवचनसार शास्त्र की चरणानुयोग चूलिका के निम्न गाथाओं की टीका में पुनः पुनः आया है; उसे जिज्ञासु पाठक जरूर देखें / (गाथा 246, 247 व 249 से 254 आदि।) (7) तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानों में अनंत दर्शन-ज्ञानादि चतुष्टयरूप परिणमन का कार्य शुद्धोपयोग का फल है।