Book Title: Gunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Author(s): Yashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
Publisher: Patashe Prakashan Samstha

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Page 276
________________ अब क्षपणाविधि को कहते हैं 275 13. इसके पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर माया संज्वलन का क्षय करता है। 14. पुनः एकअन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान को प्राप्त होता है / वह सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती जीव भी अपने गुणस्थान के अन्तिम समय में लोभ संज्वलन का क्षय करता है। 15. उसी काल में क्षीणकषाय गुणस्थान को प्राप्त करके तथा अन्तर्मुहूर्त बिताकर अपने काल के द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला का युगपत् क्षय करता है। 16. तदनन्तर अपने काल के अन्तिम (चरम) समय में 5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण और 5 अन्तराय इन 14 प्रकृतियों का क्षय करता है / इस प्रकार इन 60 प्रकृतियों का क्षय हो जाने पर यह जीव सयोग केवलीजिन होता है। 17. सयोगीजिन किसी भी कर्म का क्षय नहीं करते / तत्पश्चात् बिहार करके और क्रम से योगनिरोध करके वे अयोगकेवली होते हैं। अयोगकेवली भी अपने काल के द्विचरम समय में वेदनीय की दोनों प्रकृतियों में से अनुदयरूप कोई एक वेदनीय, देवगति, पाँच शरीर, पाँच शरीर संघात, पाँच शरीर बन्धन, छह संस्थान, तीन अङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त-विहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, दुर्भग, सुस्वर-दुःस्वर, अनादेय, अयश स्कीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र इन 72 प्रकृतियों का क्षय करते हैं। ____ पश्चात् अपने काल के अन्तिम समय में उदयागत कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, त्रस-बादरपर्याप्त-सुभग-आदेय, यशस्कीर्ति, तीर्थंकर और उच्चगोत्र इन 13 प्रकृतियों का क्षय करते हैं। अथवा मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी सहित अयोगकेवली अपने द्विचरम समय में 73 प्रकृतियों का और चरम समय में 12 प्रकृतियों का क्षय करते हैं। इसप्रकार संसार की उत्पत्ति के कारणों का विच्छेद हो जाने से इसके अनन्तरवर्ती समय में कर्मरज से रहित निर्मल दशा को प्राप्त सिद्ध हो जाते हैं।

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