________________ परिशिष्ट -4 अब क्षपणाविधि को कहते हैंअनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, इन सात प्रकृतियों का असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत प्रमत्तसंयत अथवा अप्रमत्तसंयत जीव नाश करता है। शंका :- इन सात प्रकृतियों का युगपत् नाश करता है या क्रम से?२ समाधान :- नहीं, क्योंकि तीन करण करके 1. अनिवृत्तिकरण के चरम समय में पहले अनन्तानुबन्धी चार कषाय का युगपत् क्षय करता है। 2. तत्पश्चात् पुनः तीन करण करके उनमें से अधःकरण और अपूर्वकरण को उल्लंघ कर अनिवृत्तिकरण के सङ्ख्यात भाग व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्व का क्षय करता है। ___3. इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त व्यतीत कर सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय करता है। 4. तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त व्यतीत कर सम्यक्प्रकृति का क्षय करता है। इसप्रकार क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त होकर जिस समय क्षपणविधि प्रारम्भ करता है उस समय अधःप्रवृत्तकरण करके क्रम से अन्तर्मुहुर्त में अपूर्वकरण गुणस्थान वाला होता है। वह एक भी कर्म का क्षय नहीं करता है, किन्तु प्रत्येक समय में असंख्यातगुणित रूप से कर्मप्रदेशों की निर्जरा करता है। एक-एक अन्तर्मुहूर्त में एक-एक स्थितिकाण्ड घात करता हुआ अपने काल के भीतर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकों का घात करता है। और उतने ही स्थितिबन्धापसरण करता है तथा उनसे संख्यात हजारगुणे अनुभाग काण्डकों का घात करता है, क्योंकि एक अनुभागकाण्डक के उत्कीरणकाल से एक स्थितिकाण्डक का उत्कीरणकाल संख्यातगुणा है, ऐसा सूत्रवचन है। इसप्रकार अपूर्वकरण गुणस्थान सम्बन्धी क्रिया करके और अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रविष्ट होकर, वहाँ पर भी अनिवृत्तिकरण काल के संख्यात भागों को अपूर्वकरण के समान स्थितिकाण्डक घात आदि विधि से व्यतीत कर / 1. धवलापुस्तक -1, पृ. 215 से 2. कर्मकाण्ड गाथा 337 का विशेषार्थ टीकाकर्ती आर्यिका आदिमतीजी।