Book Title: Gunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Author(s): Yashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
Publisher: Patashe Prakashan Samstha

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Page 272
________________ परिशिष्ट -3 गुणस्थानों में शुद्ध परिणति शुद्ध परिणति की परिभाषा निम्नप्रकार है - 1. आत्मा के चारित्रगुण की शुद्ध पर्याय अर्थात् वीतराग परिणाम को शुद्ध परिणति कहते हैं। 2. कषाय के अनुदय से व्यक्त वीतराग अवस्था को शुद्ध परिणति कहते हैं। 3. जबतक साधक आत्मा की वीतरागता पूर्ण नहीं होती, तबतक साधक आत्मा में शुभोपयोग, अशुभोपयोग के साथ कषाय के अनुदयपूर्वक जो शुद्धता अर्थात् वीतरागता सदैव बनी रहती है; उसे शुद्ध परिणति कहते हैं। जैसे - 1. चौथे और पाँचवें गुणस्थान में जब साधक, बुद्धिपूर्वक शुभोपयोग या अशुभोपयोग में संलग्न रहते है; तब कषाय के अभावरूप इस शुद्ध परिणति के कारण ही वे जीव धार्मिक बने रहते हैं। 2. छठवें गुणस्थानवर्ती शुभोपयोगी मुनिराज को भी शुद्ध परिणति नियम से रहती है। इस शुद्ध परिणति के कारण ही यथायोग्य कर्मों का संवर और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा भी निरंतर होती रहती है। शुद्ध परिणति अनेक स्थान पर निम्न प्रकार रह सकती है - चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में - मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी एक ही कषाय चौकड़ी के अनुदयरूप व्यक्त वीतरागता से जघन्य शुद्ध परिणति सतत बनी रहती है। इसी कारण युद्धादि अशुभोपयोग में संलग्न श्रावक को भी यथायोग्य संवर-निर्जरा होते हैं। . (2) पाँचवें देशविरत गुणस्थान में - अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण - इन दो कषाय चौकड़ी के अनुदयरूप व्यक्त विशेष वीतरागता के कारण मध्यम शुद्ध परिणति सतत बनी रहती है। इसलिए दुकान-मकानादि अथवा घर के सदस्यों की व्यवस्थारूप अशुभोपयोग में समय बिताते हुए व्रती श्रावक को भी यथायोग्य संवर-निर्जरा होते हैं। (3) छठवें-प्रमत्तविरत गुणस्थान में-अनंतानुबंधी आदि तीन कषाय चौकड़ी

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