________________ औपशमिक सम्यक्त्व 277 कर्म कुल मिलाकर 7 कर्मों का उपशम करता है। अनादि मिथ्यादृष्टि हो तो अनंतानुबंधी की 4 और मिथ्यात्व १-कुल 5 कर्मों का उपशम करता है। कदाचित् सादि मिथ्यादृष्टि भी 5, 6 या 7 का उपशम करता है। * औपशमिक सम्यक्त्व के उत्पत्ति के प्रथम समय में ही मिथ्यात्व कर्म के 1. मिथ्यात्व 2. सम्यग्मिथ्यात्व 3. सम्यग्प्रकृति - ऐसे 3 टुकड़े हो जाते हैं। * औपशमिक सम्यक्त्व की प्रथम उत्पत्ति चौथे, पाँचवें अथवा सातवें गुणस्थान में से किसी भी एक गुणस्थान में होती है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व के संबंध में मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र पृष्ठ 264 का निम्न कथन भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है “इसप्रकार अपूर्वकरण होने के पश्चात् अनिवृत्तिकरण होता है / उसका काल अपूर्वकरण के भी संख्यातवें भाग है। उसमें पूर्वोक्त आवश्यक सहित कितना ही काल जाने के बाद अन्तरकरण करता है, जो अनिवृत्तिकरण के काल पश्चात् उदय आने योग्य ऐसे मिथ्यात्वकर्म के मुहूर्तमात्र निषेक उनका अभाव करता है; उन परमाणुओं को अन्य स्थितिरूप परिणमित करता है। तथा अन्तरकरण करने के पश्चात् उपशमकरण करता है। अन्तरकरण द्वारा अभावरूप किये निषेकों के ऊपरवाले जो मिथ्यात्व के निषेक हैं, उनको उदय आने के अयोग्य बनाता है / इत्यादिक क्रिया द्वारा अनिवृत्तिकरण के अन्तसमय के अनन्तर जिन निषेकों का अभाव किया था, उनका काल आये, तब निषेकों के बिना उदय किसका आयेगा ? इसलिये मिथ्यात्व का उदय न होने से प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। अनादि मिथ्यादृष्टि के सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय की सत्ता नहीं है, इसलिये वह एक मिथ्यात्वकर्म का ही उपशम करके उपशम सम्यग्दृष्टि होता है / तथा कोई जीव सम्यक्त्व पाकर फिर भ्रष्ट होता है।"