________________ सयोगकेवली गुणस्थान 243 क्रमशः बारह योजन से प्रारंभ होता है; घटता हुआ अंतिम तीर्थंकर का समवसरण एक योजन का रह जाता है। गाथा 726 में उत्सर्पिणी काल के तीर्थंकरों के समवसरणों का प्रमाण उल्टे क्रम से चलता है अर्थात् प्रथम तीर्थंकर का एक योजन से प्रारंभ होता है और बढ़ता हुआ अंतिम तीर्थंकर का बारह योजन प्रमाण होता है। 6. यहाँ इंद्रियादि परनिमित्त निरपेक्ष/निःसहाय (स्वयं परिपूर्ण समर्थ) त्रिकालवर्ती लोकालोक को युगपत जानने-देखनेवाला केवलज्ञान तथा केवलदर्शन उत्पन्न होते हैं। इन दोनों का परिणमन युगपत होता है। (देखिये - नियमसार गाथा 160) ___ छद्मस्थ अवस्था में जैसे जीव को प्रथम सामान्य अवलोकनरूप दर्शन होता है; पश्चात् विशेष अवलोकनरूप ज्ञान होता है; वैसे ही केवलदर्शन और केवलज्ञान के संबंध में भी क्रमिक दर्शन तथा ज्ञान की प्रवृत्ति को मानेंगे तो सयोगकेवली जिनेन्द्र सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी सिद्ध नहीं होंगे। 109. प्रश्न : सयोगी जिनेन्द्र सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी कैसे सिद्ध नहीं होंगे? उत्तर : जिससमय केवलदर्शन होगा, उसीसमय केवलज्ञान नहीं होगा तो जिनेन्द्र सर्वज्ञ कैसे सिद्ध होंगे ? अल्पज्ञ ही सिद्ध होंगे। अतः सयोगकेवली अवस्था में दर्शन और ज्ञान - इन दोनों के उपयोगों की प्रवृत्ति युगपत ही होती है। ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण दोनों कर्मों का क्षय/अभाव भी एक समय में ही होता है। 7. इस सयोगकेवली गुणस्थान से इन्हीं को परमगुरु तथा परमात्मा संज्ञा प्राप्त होती है। 8. सम्यक्त्व के दस भेदों में से यहाँ सयोगकेवली का सम्यक्त्व परमावगाढ़ कहा जाता है। अब तक साधक मुनिराज अल्पज्ञ थे,