Book Title: Gunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Author(s): Yashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
Publisher: Patashe Prakashan Samstha

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Page 269
________________ गुणस्थानों में बन्धव्युच्छित्ति की सन्टष्टि व्युच्छिन्न गुणस्थान प्रकृतियों व्युच्छिन्न प्रकृतियों के नाम की संख्या मिथ्यात्व मिथ्यात्व, हुंडकसंस्थान, नपुंसकवेद, असंप्राप्तासृपाटिका-संहनन, एकेंद्रियजाति, स्थावर, आतप,सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, नरकगति, नरक-गत्यानुपूर्वी और नरकायु / सासादन | 25 अनंतानुबंधी कषाय 4, स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, न्यग्रोधपरिमंडल-स्वाति-कुब्जक और वामनसंस्थान, वज्रनाराच-अर्धनाराच-कीलित-संहनन, | अप्रशस्त-विहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यंचगतितिर्यंच-गत्यानुपूर्वी, तिर्यंचायु और उद्योत / मिश्र असंयत देशसंयत प्रमत्त अप्रमत्त | अप्रत्याख्यानावरण की चार कषाय, वज्र नाराचसंहनन, औदारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग, मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्वी और मनुष्यायु। 04 प्रत्याख्यानावरण की चार कषाय। अस्थिर, अशुभ, असातावेदनीय, अयश:कीर्ति, अरति और शोक / देवायु (यहाँ स्वस्थानअप्रमत्त देवायु की बंधनिष्ठापनाव्युच्छित्ति जानना। सातिशयअप्रमत्त में देवायु की व्युच्छित्ति नहीं होती, क्योंकि सातिशयअप्रमत्त में देवायु का बंध ही नहीं होता है।) निद्रा और प्रचला। इस भाग में उपशमश्रेणि चढ़तेसमय मरण नहीं होता। तीर्थंकर, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, पंचेंद्रियजाति, तैजस, कार्मण, आहारकशरीर-आहारकअंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियकशरीर, वैक्रियकअंगोपांग, वर्णादि 4, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और आदेय। 04 / हास्य, रति, भय और जुगुप्सा। अपूर्वकरण (प्रथमभाग) षष्ठमभाग 01 पुरुषवेद 0 0 सप्तमभाग अनिवृत्तिकरण प्रथमभाग द्वितीयभाग तृतीयभाग चतुर्थभाग पंचमभाग सूक्ष्मसापराय उपशांतमोह क्षीणमोह सयोगी संज्वलनक्रोध इसप्रकार सर्व 120 प्रकृतियाँ बंधयोग्य संज्वलन कही गई हैं इनकी बंधव्युच्छित्ति उपर्युक्त क्रम समान से जानना चाहिए। (उपर्युक्त समस्त कथन संज्वलनमाया नाना जीवों की अपेक्षा से हैं।) संज्वलनलोभ ज्ञानावरण५, दर्शनावरण४, अंतराय 5, यशस्कीर्ति और उच्चगोत्र / / 0 m 00 01 | सातावेदनीय।

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