Book Title: Gunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Author(s): Yashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
Publisher: Patashe Prakashan Samstha

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Page 263
________________ परिशिष्ट -1 जीव ही बलवान है, कर्म नहीं 1. जीव ही स्वयं अंतर्व्यापक होकर संसारयुक्त अथवा निःसंसार अवस्था में आदि-मध्य-अंत में व्याप्त होकर संसारयुक्त अथवा संसाररहित ऐसा अपने को करता हुआ प्रतिभासित होता है। - समयसार गाथा 83 की टीका 2. वस्तु की शक्ति पर की अपेक्षा नहीं रखती। इसलिए जीव परिणमन स्वभाववाला स्वयं है। -समयसार गाथा 121-125 की टीका 3. तत्त्वदृष्टि से देखा जाय, तो राग-द्वेष को उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य किंचित् मात्र भी दिखाई नहीं देता; क्योंकि सर्व द्रव्यों की उत्पत्ति अपने स्वभाव से ही होती हुई अंतरंग में अत्यंत प्रगट प्रकाशित होती है। -समयसार कलश 219 4. इस आत्मा में जो राग-द्वेषरूप दोषों की उत्पत्ति होती है, उसमें परद्रव्य का कोई भी दोष नहीं है। वहाँ तो स्वयं जीव ही अपराधी है। -समयसार कलश 220 5. जो राग की उत्पत्ति में परद्रव्य का ही निमित्तत्व मानते हैं, अपना कुछ भी कारणत्व नहीं मानते, वे - जिनकी बुद्धि शुद्ध ज्ञान से रहित अंध है; ऐसे मोहनदी को पार नहीं कर सकते। -समयसार कलश 227 6. आचार्य श्री जयसेन पुण्णफला अरहंता गाथा की टीका करते हुए लिखते हैं - द्रव्य मोह का उदय होने पर भी यदि जीव शुद्धात्म भावना के बल से भाव मोहरूप परिणमन नहीं करता तो बंध नहीं होता। यदि पुनः कर्मोदय मात्र से बंध होता हो तो संसारियों के सदैव कर्म के उदय की विद्यमानता होने से सर्वदा बंध ही होगा, कभी भी मोक्ष नहीं हो सकेगा। - प्रवचनसार गाथा 45 7. निगोद पर्याय में भावकलंक की प्रचुरता कही गयी है, कर्मों का बलवानपना तो वहाँ भी नहीं कहा है। - गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा-१६७ 8. प्रत्येक द्रव्य प्रति समय उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है, अतः कोई

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