Book Title: Gunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Author(s): Yashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
Publisher: Patashe Prakashan Samstha

View full book text
Previous | Next

Page 265
________________ 264 गुणस्थान विवेचन 14. इस विश्व में अनेक जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त कर रहे हैं; पंचम गुणस्थान की प्राप्ति कर रहे हैं; छठवें-सातवें गुणस्थान में झूल रहे हैं तथा परिषह व उपसर्गरूप विपरीत संयोगों में आत्मानंद का अनुभव कर रहे हैं और सिद्ध भगवान भी हो रहे हैं - इन बातों से भी जीव ही पुरुषार्थी अर्थात् बलवान है, यह विषय हमें स्पष्ट हो जाता है। 15. जड़ द्रव्यकर्म का उदय और जीव के विकारी परिणाम एक साथ व एक ही समय में होते हैं; ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध का कथन आचार्यों ने करणानुयोग में किया है। इसलिए कर्म जीव के विकारी परिणामों का कर्ता नहीं है। 16. कर्म को बलवान मानोगे तो जीव पराधीन और कर्मों का गुलाम होने से कोई मुनि, व्रती, श्रावक व सम्यग्दृष्टि भी नहीं हो पायेंगे; क्योंकि अपनी-अपनी भूमिका के योग्य विशिष्ट कर्मों के उपशमादि हुए बिना कोई जीव मुनि आदि हो ही नहीं सकते / कर्म तो कमजोर होते हैं, बलवान नहीं। आज तक अनंत जीवों ने स्वयं पुरुषार्थपूर्वक मुक्ति की प्राप्ति की है. उसके फलस्वरूप कर्मों का अकर्मपना स्वयं हो गया है। 17. पूर्व जीवन में जीव ने विपरीत पुरुषार्थ से तीव्र मोहादि कर्मों का बंध किया था और उस कर्म के उदय-काल में पुरुषार्थहीनता से जीव धर्म प्रगट करने में समर्थ नहीं हो पाता। अतः शास्त्र में “कर्म बलवान् है" ऐसा कथन भी व्यवहार नय से आया है, वास्तव में कर्म बलवान नहीं - ऐसा समझना चाहिए। जैसे राम के पराक्रम, शौर्य, धैर्य आदि की प्रसिद्धि को स्पष्ट करने के लिये ही दुष्ट रावण के भी शौर्य का वर्णन जैन शास्त्रों में किया है। वैसे ही जीव के बलवानपने को विशेषरूप से सिद्ध करने के लिये व्यवहार नय से कर्म को बलवान कहा गया है, इसका अर्थ जीव ही बलवान है। कर्मरूप निमित्त का तो मात्र ज्ञान कराया गया है। 18. यदि कर्म को बलवान मानेंगे तो एक भी जीव सिद्ध भगवान नहीं बन सकेगा; क्योंकि जीव के पुरुषार्थपूर्वक कर्म का अभाव हुए बिना कोई जीव सिद्ध नहीं हो सकता। अनेक जीव कर्मों के अभावपूर्वक सिद्ध भगवान

Loading...

Page Navigation
1 ... 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282