________________ 249 अयोगकेवली गुणस्थान की निर्जरा अर्थात् क्षय हो जाता है और अंतिम समय में शेष तेरह प्रकृतियों का भी नाश हो जाता है। इन कर्मों के नाश के समय ही संसार अवस्था का व्यय और सादि अनंत काल के लिए सिद्ध दशा का उत्पाद भी हो जाता है। 2. योग के अभाव के कारण अयोगकेवली को ईर्यापथास्रव भी नहीं होता, जो ग्यारहवें-बारहवें तथा तेरहवें में भी होता था। 3. मुनिराज के चौरासी लाख उत्तर गुणों की तथा शील सम्बन्धी अठारह हजार भेदों की पूर्णता यहाँ अयोगकेवली अवस्था में होती है। 112. प्रश्न - श्रावक के भी उत्तरगुण और शील होते हैं क्या ? उत्तर :- हाँ, जरूर होते हैं। अहिंसादि पाँच अणुव्रत, दिग्वतादि तीन गुणव्रत और सामायिक आदि चार शिक्षाव्रत -- कुल मिलाकर ये बारह व्रत होते हैं; उन्हें ही श्रावक के उत्तर गुण कहते हैं। गुणव्रत तथा शिक्षाव्रत को सप्तशील भी कहते हैं। 4. पूर्ण संवर तथा पूर्ण निर्जरा भी अयोगकेवली को ही होती है। 5. यहाँ प्रयुक्त अयोग शब्द आदि दीपक है। स्वयं अयोगकेवली गुणस्थानवर्ती अरहंत परमात्मा तो अयोगी हैं ही और यहाँ से उपरिम सिद्ध दशा अयोगरूप और अशरीरी ही है। धवला पुस्तक 1 का अंश (पृष्ठ 193 से 200) __अब आचार्य पुष्पदंत भट्टारक अन्तिम गुणस्थान के स्वरूप के निरूपण करने के लिये, अर्थरूप से अरहंत परमेष्ठी के मुख से निकले हुए, गणधर देव के द्वारा गूंथे गये शब्द-रचनावाले, प्रवाहरूप से कभी भी नाश को नहीं प्राप्त होनेवाले और संपूर्ण दोषों से रहित होने के कारण निर्दोष ऐसे आगे के सूत्र को कहते हैं - सामान्य से अयोगकेवली जीव हैं / / 20 / / जिसके योग विद्यमान नहीं है, उसे अयोग कहते हैं। जिसके केवलज्ञान पाया जाता है, उसे केवली कहते हैं / जो योग रहित होते हुए केवली होता है, उसे अयोगकेवली कहते हैं। ___34. शंका - पूर्वसूत्र से केवली पद की अनुवृत्ति होने पर इस सूत्र में फिर से केवली पद का ग्रहण नहीं करना चाहिये ? 1. भावपाहुढ़ गाथा - 120