Book Title: Gunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Author(s): Yashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
Publisher: Patashe Prakashan Samstha

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Page 245
________________ 244 गुणस्थान विवेचन यहाँ सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गये हैं। यही कारण सम्यक्त्व के परमावगाढ़पने में है। 9. यहाँ ‘सयोग' शब्द अंत दीपक है। अतः प्रथम गुणस्थान से लेकर इस तेरहवें गुणस्थान पर्यंत के सर्व जीव सयोगी/योगसहित ही हैं। इसे निम्नानुसार स्पष्ट समझ सकते हैं - सयोग मिथ्यात्व, सयोग सासादनसम्यक्त्व, सयोग मिश्र आदि। 10. "केवली' शब्द आदि दीपक है। तेरहवें गुणस्थान में व्यक्त हुआ केवलज्ञान अर्थात् केवलीपना वह आगे के चौदहवें गुणस्थान में और सिद्धालय में भी अनंत काल पर्यंत सतत ध्रुव और अचलरूप से रहनेवाला है। जैसे - अयोगकेवली, सिद्धकेवली। 11. यहाँ चारों घाति कर्मों का अभाव हो जाने से सयोगकेवली अरहंत परमात्मा को जीवन मुक्त भी कहते हैं। अभी चारों अघाति कर्मों की सत्ता और उदय होने से एवं असद्धित्व भाव के कारण मुक्तावस्था नहीं हुई है। 12. भव्य जीवों के भाग्यवश ही भगवान का विहार होता है। केवली भगवान के विहार के व्यवस्थापक कोई इंद्रादिक नहीं हैं। जिन जीवों की मोक्षमार्ग प्राप्त करने की पात्रता पक गयी है, उन्हें सहज ही सर्वोत्तम निमित्त मिलते ही हैं। अतः पात्र जीवों की ओर भगवान का विहार एवं उनके लिए उपदेश स्वयं होता है। पण्डित दौलतरामजी ने कहा भी है - भवि भागन वच जोगे वशाय तुम ध्वनि......। 13. पाँच इन्द्रियप्राणों का व मनोबल का विनाश तो क्षीणमोह गुणस्थान के अन्त में हो जाता है। वचनबल और श्वासोच्छवास प्राण का विनाश सयोगकेवली के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में होता है। कायबल का विनाश सयोगकेवली के अन्त में होता है एवं आयुप्राण का विनाश अयोगकेवली गुणस्थान के अन्त में होता है। तेरहवें के अन्त में अर्थात् चौदहवें गुणस्थान के प्रथम समय में ही आत्मा के सर्व प्रदेश स्थिर अर्थात् अकम्प होने से शरीर से किंचित् न्यून

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