Book Title: Gunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Author(s): Yashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
Publisher: Patashe Prakashan Samstha

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Page 246
________________ 245 सयोगकेवली गुणस्थान आकारवाले हो जाते हैं। सिद्ध अवस्थायोग्य आत्म-प्रदेशों का आकार नारियल में सूखे गोले के समान किंचित् न्यून हो जाता है। 110. प्रश्न : सयोगकेवली परमात्मा के कितने और कौनसे कर्मों का नाश हो गया है ? उत्तर : तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरहंत परमात्मा की अवस्था में नवीन एक भी कर्म प्रकृति का नाश नहीं होता। इसका स्पष्टीकरण-ज्ञानावरणादि चारों घाति कर्मों की कुल मिलाकर संख्या सैंतालीस है (ज्ञानावरण की 5, दर्शनावरण की 9, मोहनीय की 28 और अंतराय की 5) - इनका नाश तेरहवें गुणस्थान के पहले यथास्थान हो चुका है। अघाति कर्मों में से निम्नांकित सोलह प्रकृतियाँ भी यहाँ नहीं हैं - (1) नरकायु (2) तिर्यंचायु (3) देवायु - इन तीनों आयु कर्म का यहाँ अस्तित्व ही नहीं पाया जाता / नामकर्म की - (1) नरकगति (2) नरकगत्यानुपूर्वी (3) तिर्यंचगति (4) तिर्यंचगत्यानुपूर्वी (5) द्विइन्द्रिय (6) त्रिइन्द्रिय (7) चतुरिन्द्रिय (8) उद्योत (9) आतप (10) एकेंद्रिय (11) साधारण (12) सूक्ष्म और (13) स्थावर / आयुकर्म की तीन और नामकर्म की तेरह मिलकर सोलह प्रकृतियाँ, घातिकर्म की 47 + अघाति कर्म 16 = 63. धवला पुस्तक 1 का अंश (पृष्ठ 191 से 192) सामान्य से सयोगकेवली जीव हैं / / 21 / / केवल पद से यहाँ पर केवलज्ञान का ग्रहण किया है। 33. शंका - नाम के एकदेश के कथन करने से संपूर्ण नाम के द्वारा कहे जानेवाले अर्थ का बोध कैसे संभव है ? समाधान - नहीं; क्योंकि बलदेव शब्द के वाच्यभूत अर्थ का, उसके एकदेशरूप देव' शब्द से भी बोध होना पाया जाता है / इसतरह प्रतीतिसिद्ध बात में, 'यह नहीं बन सकता है' इसप्रकार कहना निष्फल है, अन्यथा सब जगह अव्यवस्था हो जायेगी।

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