________________ 202 गुणस्थान विवेचन संज्वलन लोभ कषाय अन्त तक नष्ट नहीं होती, दसवें गुणस्थान तक जमी रहती है; इस अपेक्षा उसे बलवान कहा जाय तो कोई दोष नहीं है। वैसे तो अनंतानुबंधी को ही बलवान माना जाता है; क्योंकि वह अनन्त संसार का अनुबंध कराती है। चारित्रमोहनीय कर्म की 25 प्रकृतियों में से जिस कर्म का नाश (उपशम या क्षय) पहले होता है, उसे अन्य कर्मों की अपेक्षा बलहीन माना है। इस युक्ति के आधार से संज्वलन कषायों के पहले अनंतानुबंधी आदि कषायों का उपशम या क्षय हो जाता है; इस कारण वे अनंतानुबंधी आदि कषायें संज्वलन कषायों से बलहीन सिद्ध हो जाती हैं। ___ जब जीव निजशुद्धात्मसन्मुख होता है, तब अधःकरण आदि परिणामों द्वारा औपशमिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। उसी समय दर्शनमोह उपशमित होता है और अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का भी स्वयमेव अप्रशस्त उपशम हो जाता है। दर्शनमोह को मरता हुआ जानकर मानो अनन्तानुबन्धी स्वतः मर जाती हैं। विशेष इतना है कि क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के समय अधःकरणादि त्रिकरण परिणामपूर्वक ही अनंतानुबंधी कषाय चौकड़ी अन्य 21 कषाय, 9 नौकषायों में विसंयोजित हो जाती है। यहाँ अनंतानुबंधी के विसंयोजन के लिए स्वतंत्र पुरुषार्थ अपेक्षित है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय पूरिरूप से प्रत्पाडपमापरण कपाषरूप में संक्रमित हो जाती है और प्रत्याख्यानावरण कषाय संज्वलन क्रोध में संक्रमित हो जाती है। संज्वलन क्रोध आदि चारों कषायें एक साथ नष्ट नहीं होती। क्रोध कर्म, मान में बदलता है; मान, माया कर्मरूप हो जाता है; माया, लोभ में संक्रमित होती है; मात्र लोभ कषायकर्म किसी अन्यरूप नहीं होता। अतः संज्वलन लोभ का भी अंश जो सूक्ष्मलोभ वह अधिक बलवान है; जो सबसे अंत में नष्ट होता है।