Book Title: Gunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Author(s): Yashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
Publisher: Patashe Prakashan Samstha

View full book text
Previous | Next

Page 216
________________ उपशान्तमोह गुणस्थान ___ 215 परिभाषा में उपशांतमोही जीव के वीतरागी परिणाम को स्वच्छ जल की उपमा दी है / कतकफल (निर्मली नाम की वनस्पति का बीज जो मलिन जल को निर्मल बनाने के लिये उपयोग में लाया जाता है) से निर्मल किया हआ जल अर्थात् जल तो निर्मल हुआ है; तथापि मल नीचे दबा हुआ सत्ता में है; यह पहले दृष्टांत का भाव है। दूसरा दृष्टांत शरदकालीन सरोवर का लिया है; यहाँ भी जल तो निर्मल है; लेकिन नीचे कीचड़ का अस्तित्व है; फिर भी वर्तमान में उस स्वच्छ जल में मुख या चन्द्रमा का प्रतिबिंब ज्यों का त्यों झलकता है। ___ इसका भाव यह है कि वर्तमान काल में तो वीतरागभाव पूर्ण निर्मल है; तथापि एक अंतर्मुहूर्त के बाद ही पूर्व संस्कारवश अपने अपराध से, कालक्षय या आयुक्षय हो जाने से रागादिरूप परिणमित हो जाता है। ग्यारहवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म की 21 प्रकृतियों का अंतरकरणरूप उपशम हुआ है। 98. प्रश्न : अंतरकरणपूर्वक उपशम किसे कहते हैं ? उत्तर : अधःकरणादि द्वारा उपशम विधान से अनंतानुबंधी चतुष्क बिना मोहनीय कर्म की जो उपशमना होती है, उसे प्रशस्त उपशम कहते हैं। इसे ही अंतरकरणपूर्वक उपशम भी कहते हैं। * आगामी काल में उदय आने योग्य कर्म परमाणुओं को जीव के परिणाम विशेषरूप निमित्त होने से आगे-पीछे उदय में आने योग्य होने को अंतरकरणपूर्वक उपशम कहते हैं। अंतरकरणरूप उपशम समझने के लिये परिशिष्ट क्रमांक 5 देखें - यहाँ चारित्रमोहनीय के 21 प्रकृतियों को उपरितन तथा अधस्तनस्थिति में डालकर बीच का कुछ भाग 21 चारित्रमोहनीय कर्मों से रहित किया गया है। जब जीव अधस्तनस्थिति के कर्मों के उदय को पूर्ण भोगकर खाली जगह में आता है, तब स्वयं ही कर्म के रहितपने के कारण जीव को क्षायिक चारित्र के समान औपशमिक निर्मलभावरूप पूर्ण वीतराग चारित्र हो जाता है। इस ग्यारहवें गुणस्थान का पूर्ण नाम “उपशांतकषाय-वीतराग छद्मस्थ' है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282