________________ 224 गुणस्थान विवेचन दर्शनावरण को कहते हैं, उनमें जो रहते हैं उन्हें छद्मस्थ कहते हैं। जो वीतराग होते हुए भी छद्मस्थ होते हैं, उन्हें वीरगछद्मस्थ कहते हैं। इसमें आये हुए वीतराग विशेषण से दशम गुणस्थान तक के सराग छद्मस्थों का निराकरण समझना चाहिये। जो उपशान्त कषाय होते हुए भी वीतराग छद्मस्थ होते हैं, उन्हें उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ कहते हैं। इससे (उपशान्तकषाय विशेषण से) आगे के गुणस्थानों का निराकरण समझना चाहिये। इस गुणस्थान में संपूर्ण कषायें उपशान्त हो जाती हैं, इसलिये इसमें औपशमिक भाव है। तथा सम्यग्दर्शन की अपेक्षा औपशमिक और क्षायिक दोनों भाव हैं। अथ उपशांत कषाय तें पड़ने का विधान कहैं है - टीका - उपशांत कषाय तैं पडना दोय प्रकार है - भव क्षय हेतु, उपशमकाल क्षय निमित्तक तहां मरण होते पर्याय का नाश के निमित्त तैं पडना होइ, सो भव क्षय हेतु कहिए / अर उपशमकाल के क्षय के निमित्त तैं पडना होइ सो उपशम काल क्षय निमित्तक कहिए। ___ तहां भव-क्षय हेतु विौं कहिए है - उपशांत कषाय के काल विर्षे प्रथमादि अंत समयनि पर्यंत विर्षे जहां तहां आयु के नाश तें मरि करि देव पर्याय सम्बन्धी असंयत गुणस्थान विर्षे पडे, तहां असंयत का प्रथम समय विर्षे बंध, उदीरणा, संक्रमण आदि समस्त कारण उघाडै है / अपने-अपने स्वरूप करि प्रगट वर्ते हैं। जाते जे उपशांत कषाय विर्षे उपशमे थे, ते सर्व असंयत विषं उपशम रहित भए हैं। - लब्धिसार ग्रंथ का विशेष अंश, पृष्ठ : 267-268