Book Title: Gunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Author(s): Yashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
Publisher: Patashe Prakashan Samstha

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Page 232
________________ क्षीणमोह गुणस्थान 231 नाम संबंधी स्पष्टीकरण - क्षीण = नाश, नष्ट / कषाय = रागद्वेष-मोह/विकारी परिणाम / वीतराग-रागद्वेष आदि सर्व विकारों से रहित अत्यंत निर्मल दशा / छद्मस्थ=ज्ञानावरणादि के सद्भाव में विद्यमान अल्प ज्ञान-दर्शन में स्थित। सर्व कषायों के क्षय के समय ही पूर्ण निर्मल वीतराग दशा प्रगट हो जाने पर भी ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षयोपशम होने से क्षीणमोही महामुनिराज छद्मस्थ अर्थात् अल्पज्ञ ही हैं। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार - बारहवें गुणस्थानवर्ती महामुनिराज को मात्र क्षायिक सम्यक्त्व ही होता है; क्योंकि औपशमिक सम्यक्त्व तथा औपशमिक चारित्र की सीमा ग्यारहवें गुणस्थानपर्यंत ही रहती है। चारित्र अपेक्षा विचार - क्षीणमोह गुणस्थान में क्षायिक यथाख्यातचारित्र ही होता है। क्षपक अपूर्वकरण आठवें गुणस्थान के प्रथम समय से ही चारित्र मोहनीय कर्म की 21 प्रकृतियों के आंशिक क्षय का कार्य प्रारम्भ होने से आठवें में भी उपचार से क्षायिक चारित्र कहा है। चारित्रमोहनीयकर्म की 21 प्रकृतियों में से 20 प्रकृतियों का क्षय तो नववे क्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अंतिम समय पर्यंत हुआ है। दसवें गुणस्थान में मात्र सूक्ष्मलोभ कषाय शेष बची है। अब इस बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में ही शेष सूक्ष्म लोभ कषाय कर्म का उदय तथा परिणाम-दोनों का क्षय हो जाता है। इसलिए यहाँ क्षायिक चारित्र पूर्ण हो गया है। काल अपेक्षा विचार - क्षीणमोह गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त है। छठवें गुणस्थान से सातवें अप्रमत्त गुणस्थान का काल (मरण की अपेक्षा छोड़कर) आधा रहता है / सातवें से आठवें अपूर्वकरण का काल कुछ कम / अपूर्वकरण की अपेक्षा अनिवृत्तिकरण का काल और कुछ कम / नववें से दसवें का काल उससे भी कुछ कम और क्षपक दसवें से भी इस क्षीणमोह

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