________________ उपशान्तमोह गुणस्थान ग्यारहवें गुणस्थान का नाम उपशांतमोह है। श्रेणी के चारों गुणस्थानों में उपशांतमोह उपशमश्रेणी का अन्तिम गुणस्थान है। एक अपेक्षा से विचार किया जाय तो उपशमश्रेणी के फलरूप यह गुणस्थान है। चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम का प्रारंभ उपशमक अपूर्वकरण गुणस्थान के पहले समय से चालू हुआ था और वह उपशमन का कार्य दसवें गुणस्थान के अंत समय का व्यय कहो अथवा ग्यारहवें गुणस्थान के पहले समय का उत्पाद कहो, यहाँ परिपूर्ण हुआ है। इसी को निम्नप्रकार से समझ सकते हैं - सूक्ष्मलोभकषाय का व्यय और वीतरागता का उत्पाद एक समयवर्ती है; क्योंकि उत्पाद और व्यय दोनों एक ही समय में उत्पन्न होते हैं, यह वस्तु व्यवस्था का स्वरूप है। __ अंत के चारों गुणस्थान परिपूर्ण वीतरागियों के गुणस्थान हैं; उनमें यह उपशांत मोह गुणस्थान प्रथम गुणस्थान है। ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती ये मुनीश्वर पूर्ण सुखी हो गये हैं। 97. प्रश्न : आठों कर्मों की सत्ता होने पर और सातों कर्मों का उदय होते हुए उपशांतमोही मुनिराज पूर्ण सुखी कैसे हो सकते हैं ? उत्तर : दुःख का मूल कारण एक मोह परिणाम ही है। उपशांत मोह गुणस्थानवर्ती महामुनिराज को मोह का पूर्ण उपशम हो गया है, उनके रंचमात्र भी मोह परिणाम नहीं रहा है; अतः वे पूर्ण सुखी हैं। सत्ता में स्थित कर्मों का वर्तमानकालीन भावों से कुछ संबंध नहीं रहता। शेष द्रव्यमोह कर्म दबा हुआ है; अंतर्मुहूर्त काल (उपशांतमोह गुणस्थान का काल) समाप्त होते ही चारित्रमोह कर्म का उदय अपनी योग्यता से होता है; तथापि जितने काल पर्यंत उपशांतमोही अर्थात्