Book Title: Gunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Author(s): Yashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
Publisher: Patashe Prakashan Samstha

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Page 220
________________ ____219 उपशान्तमोह गुणस्थान वैसे ही भावलिंगी संतों का आंतरिक बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ यही रहता है कि धारावाहीरूप से शुद्धि की उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए पूर्णता को प्राप्त करें; परंतु अबुद्धिपूर्वक श्रेणी आरोहण के समय अपूर्वकरण गुणस्थान के पहले समय के पुरुषार्थ के अनुसार ही यह स्वभाव से ही निश्चित हो जाता है कि ये मुनिराज ऊपर के कौन से गुणस्थान तक जायेंगे। निर्णय करानेवाला कोई कर्म अथवा अन्य कोई भी नहीं है। 2. उपशांतमोह गुणस्थानवर्ती मुनिराज यथायोग्य अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत उपशांतमोह गुणस्थान में पूर्ण वीतरागी तथा पूर्ण सुखी रहते हैं। यहाँ एक सुनिश्चित नियम समझना चाहिए कि कोई भी उपशामक उपशांतमोह गुणस्थान से नीचे उतरते हैं तो वे क्रम-क्रम से छठवें गुणस्थान ग्यारहवें से सीधे छठवें में या चौथे में अथवा मिथ्यात्व गुणस्थान में गमन कभी और कोई भी नहीं करते। __पण्डित भागचंद्रजी के भजन का सही भाव न समझने के कारण कुछ लोग भ्रमबुद्धि रखते हैं, वह गलत है। भजन में आया है कि - मुनि एकादश गुणस्थान चढ़ि, गिरत तहाँ तँ चितभ्रम ठानी। भ्रमत अर्धपुद्गल परिवर्तन, किंचित ऊन काल परमानी / / जीव के परिणामनि की यह, अति विचित्रता देखहु ज्ञानी। “गिरत तहाँ ते चितभ्रम ठानी' से जीव उपशांतमोह गुणस्थान से क्योंकि पद्य में तो उन्होंने सामान्य कथन किया है। ऊपर जिस क्रम से नीचे उतरने की विधि कही है. वैसा ही समझना चाहिए। वास्तव में देखा जाय तो श्रेणी चढ़ते समय मुनिराज की जिस क्रम से कर्मों की उपशमना हुई है, ग्यारहवें से वापिस नीचे लौटते समय विलोम से उन्हीं उपशमित चारित्र मोहनीय की 21 प्रकृतियों की उदीरणा होती है। अतः छठवें गुणस्थान पर्यंत तो क्रम से ही उतर कर आते हैं। तदनंतर किसी भी गुणस्थान में गमन कर सकते हैं। 3. उपशम श्रेणी चढ़ते (आठवें गुणस्थान का प्रथम भाग छोड़कर) या

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