________________ 196 गुणस्थान विवेचन चारित्र अपेक्षा विचार - __ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उपशमक मुनिराज को औपशमिक चारित्र और क्षपक मुनिराज को क्षायिक चारित्र होता है; क्योंकि इस गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म के 20 (सूक्ष्म लोभ को छोड़कर) प्रकृतियों का उपशम या क्षय हो जाता है। (विशेष खुलासा के लिए देखे-धवला पुस्तक 5, पृष्ठ क्र. 205; गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 14, गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा 20 की टीका एवं भावदीपिका पृष्ठ : 229-234) उपशम तथा क्षपक श्रेणी का आरोहक होने से यहाँ क्रमशः औपशमिक और क्षायिक चारित्र कहा गया है। (आठवें गुणस्थान के आगे का सर्व प्रकरण यहाँ पूर्ण रीति से लागू होता है, उसे यहाँ पुनः अवलोकन कीजिए) / इस अनिवृत्तिकरण गुणस्थान का चारित्रमोहनीय के उपशम या क्षय करने में विशिष्ट योगदान निम्नानुसार है - सूक्ष्मता से जब हम सोचते हैं तब यह विषय स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक श्रेणी के गुणस्थान तो चार-चार ही हैं, तथापि प्रत्येक श्रेणी के अंत के गुणस्थान अर्थात् उपशांतमोह और क्षीणमोह परिणामों ने चारित्र मोहनीयकर्म के उपशम या क्षय करने का काम तो कुछ किया नहीं। नीचे के तीनों गुणस्थानों के प्रत्येक समय के शुद्ध भावानुसार चारित्रमोहनीय के उपशम या क्षय का प्रारंभ हुआ और उसके फलस्वरूप पूर्ण भी हुआ। तदनंतर ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में पूर्ण वीतरागता अपने आप प्रगट हो गयी है। ____ अपूर्वकरण गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम या क्षय करने का प्रारंभ तो किया; परन्तु किन्हीं विशेष प्रकृतियों का उपशम या क्षय नहीं हो सका। क्षय प्रारंभ करने का श्रेय कहो अथवा बहमान कहो, मिला तो अपूर्वकरण को ही; तथापि वहाँ प्रत्यक्ष में किसी भी चारित्रमोहनीय का पूर्ण उपशम या क्षयरूप कार्य नहीं हुआ। ___अब बात आती है अनिवृत्तिकरण की। बारह कषायों में से मात्र सूक्ष्म लोभ को छोड़कर ग्यारह कषायों का और नौ नोकषायों का भी पूर्ण उपशम या पूर्ण क्षय करने का विशिष्ट महत्वपूर्ण कार्य तो मात्र एक अनिवृत्तिकरण परिणाम से ही हुआ है।