________________ अपूर्वकरण गुणस्थान 185 2. उपशमश्रेणी से उतरते समय क्रमशः उपशमक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान से भी आठवें गुणस्थान में आगमन होता है। 3. क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थान में आगमन मात्र अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से होता है; ऊपर के किसी भी गुणस्थान से नहीं; क्योंकि क्षपक नीचे उतरते ही नहीं; वे तो नियम से अरहंत बनकर सिद्ध ही हो जाते हैं। विशेष अपेक्षा विचार - 1. सातिशय अप्रमत्तविरत गुणस्थान में अधःप्रवृत्तकरण के निमित्त से जो चार आवश्यक बताये गये हैं, वे सर्व आवश्यक इस अपूर्वकरण गुणस्थान में भी निरन्तर होते ही हैं। उनको इस आठवें गुणस्थान के संबंध में दुबारा देखने का कष्ट करें। 2. पूर्वबद्ध कर्मों का स्थितिकांडक घात होता है / सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान में अधःप्रवृत्तकरण के निमित्त से नये बंधनेवाले कर्मों का उत्तरोत्तर अल्प स्थितिबंध होता है; इसी कार्य को स्थितिबंधा-पसरण कहते हैं। अपूर्वकरण के कारण पूर्वबद्ध कर्मों का स्थितिकांडक घात होता है। यहाँ रहस्य की बात यह है कि किसी भी कर्म की स्थिति (पुण्य हो या पाप) कम होना साधक के लिये अच्छा ही है; क्योंकि अधिक स्थितिबंध का अर्थ संसार में अधिक समय पर्यंत रहकर जन्म-मरण की चक्की में पिसते रहना है। अल्प स्थितिबंध में तो जीव का मंदकषायरूप भाव कारण है; परन्तु स्थितिकांडक घात में तो वृद्धिंगत वीतराग परिणाम के साथ रहनेवाला मंद कषायरूप विशुद्धभाव निमित्त कारण हैं। सातवें गुणस्थान से आठवें गुणस्थान में वीतरागता बढ़ गयी है। स्थितिबंधापसरण का भाव यह है कि जैसे सामने, लड़ने के लिये आये हुए शत्रुओं को अपनी सामर्थ्य से बलहीन करते रहने के समान है और स्थितिकांडक घात का भाव यह है कि जैसे सोये हुये अथवा लड़ने के लक्ष्य से विस्मृत हुए बलवान शत्रुओं को सावधान करके अथवा शत्रुता का स्मरण दिलाकर उनके साथ अपने विशेष सामर्थ्य से लड़ते हुए उन शत्रुओं को यथा शीघ्र उनकी शक्ति क्षीण करते हुए जीत लेने के समान है।