________________ मिथ्यात्व गुणस्थान पहले गुणस्थान का नाम मिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व गुणस्थान प्रत्येक जीव को अनादिकाल से स्वयंसिद्ध है। वर्तमान में सिद्धालय में विराजमान जितने भी परमपूज्य सिद्ध भगवान हैं, वे सर्व भूतकाल में इस मिथ्यात्व गुणस्थान में ही थे। इस मिथ्यात्व का नाश करके ही रत्नत्रय की साधना के बल से वे सब सिद्धालय में पहुँचे हैं। नये अपराध के बिना ही जीव अनादिकाल से ही विपरीत श्रद्धानी है; परंतु यह जीव चाहे तो वर्तमान में अपने पुरुषार्थ से विपरीत श्रद्धादि का परिहार कर सकता है / उल्टी मान्यता का त्याग करना, इस मनुष्य के हाथ में है। उल्टी मान्यता, विपरीत श्रद्धा, मिथ्यात्व, संसारमार्ग, दुःखमार्ग - इन सब का अर्थ एक ही है। 9. प्रश्न : मिथ्यात्व दशा में जीव के भाव कैसे होते हैं ? यह स्पष्ट कीजिए, जिससे मिथ्यात्व का सही स्वरूप हम समझ सकें और उसका त्याग कर सकें। उत्तर : अज्ञानी जीव अनादिकाल से ही विपरीत मान्यता को यथार्थ मानकर मिथ्यात्व को ही सतत पुष्ट कर रहा है तथा सत्समागम एवं सत् शास्त्र का अध्ययन न करने से अपनी गलती का भी उसे सच्चा ज्ञान नहीं है। अत: मिथ्यात्व छोड़ने तथा छुड़ाने के अभिप्राय से यहाँ सुबोध शब्दों में मिथ्यात्व परिणाम को स्पष्ट करते हैं। 1. वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी सच्चे देव को छोड़कर अन्य मोही रागी-द्वेषी देव-देवियों को सच्चा देव मानना; सर्वज्ञकथित सत् शास्त्र से विपरीत शास्त्र को यथार्थ शास्त्र मानना; छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले भावलिंगी दिगम्बर मुनिराज को छोड़कर अन्य भेषधारकों को गुरुपने से स्वीकार करना, यह सब गृहीतमिथ्यात्व है।