________________ अप्रमत्तविरत गुणस्थान 167 सम्यग्दृष्टि जीव के त्रिकरणपूर्वक अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क के विसंयोजन करके पुनः तीन कारणों के द्वारा दर्शन मोहनीय त्रिक के उपशम से होनेवाले श्रद्धा गुण के सम्यक् परिणमन को द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। (उपशम श्रेणीवाले के लिए अनंतानुबंधी का विसंयोजन हो अथवा न भी हो कोई नियन नहीं है।) ऐसा कोई आचार्य कहते हैं।' चारित्र अपेक्षा विचार - इस अप्रमत्तसंयत सातवें गुणस्थान में क्षायोपशमिक चारित्र होता है। वह क्षायोपशमिकपना निम्न प्रकार घटित होता है - प्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म के वर्तमानकालीन सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय, उनके ही भविष्य में उदय आनेयोग्य स्पर्धकों का सदअवस्थारूप उपशम और देशघाति संज्वलन कषाय तथा हास्यादि यथासंभव नोकषायों का मंद उदय होता है। ____ मुनिजीवन में व्यक्त/प्रगट वीतरागभाव तो निश्चय चारित्र है और वीतरागता के साथ उसी समय अबुद्धिपूर्वक राग परिणाम, वह व्यवहार चारित्र है। निश्चय चारित्र तो मोक्षमार्गस्वरूप होने से उससे संवर-निर्जरा सतत होती हैं; उसीसमय जो अबुद्धिपूर्वक कषायरूप परिणमन है, वह व्यवहार चारित्र है, उससे आस्रव-बंध भी होते हैं। काल अपेक्षा विचार - जघन्य काल - कोई प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती भावलिंगी संत शुभोपयोग का अभाव करके शुद्धोपयोगरूप अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में मात्र एक समय ही रहें और तत्काल ही मनुष्यायु का क्षय हो जाय तो ध्यानावस्था में ही मरण होता है। इसप्रकार मरण की अपेक्षा से ही मात्र एक समय घटित हो जाता है। ___ जब उपशमक मुनिराज श्रेणी से उतरते समय अपूर्वकरण गुणस्थान से नीचे सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में आते हैं; तब अप्रमत्तसंयत में मात्र एक समय रह पाये और तत्काल मनुष्यायु का क्षय हो जाय तो मरण की अपेक्षा मात्र एक समय घटित हो जाता है। 1. मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय-९, पृष्ठ-३३६, पंक्ति 5