________________ 171 अप्रमत्तविरत गुणस्थान अप्रमत्तसंयत मुनिराज के राग-द्वेष परिणाम भी अत्यंत हीन हो गये हैं। अगले अंतर्मुहूर्त से तो ये मुनिराज श्रेणी पर ही आरूढ़ होनेवाले हैं तथा वर्तमान काल में वीतरागता समय-समय प्रति बढ़ती ही जाती है। अत: नया होनेवाला कर्मबंध उत्तरोत्तर कम स्थिति लेकर बंधता रहता है, इसे ही स्थितिबंधापसरण कहते हैं। जैसे किसी को पहले अंतर्मुहूर्त में सौ वर्ष के कर्म का स्थितिबंध हुआ था। उसे ही दूसरे अंतर्मुहूर्त में 90 वर्ष का स्थितिबंध होता है। तीसरे अंतर्मुहूर्त में 80 वर्ष का स्थितिबंध होता है। चौथे अंतर्मुहूर्त में 70 वर्ष का / इसतरह नये कर्म का स्थितिबंध कम कालावधि का ही होता है; उसे स्थिति-बंधापसरण कहते हैं। कर्मबंध में जीव का राग-द्वेष भाव, निमित्त मात्र है और नया कर्म बंध स्वयमेव अपने कारण से हीन स्थितिवाला बंधता है। इसमें सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनिराज का बुद्धिपूर्वक कुछ कर्त्तव्य नहीं है। इसलिए सर्वज्ञ कथित सहज निमित्त-नैमित्तिक संबंध समझना बहुत महत्त्वपूर्ण है। ___ आचार्य अमृतचंद्र के पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक 12 में यह विषय अत्यंत स्पष्ट रीति से आया है, जो इसप्रकार है - ___ जीव के किये हुए रागादि परिणामों का मात्र निमित्त पाकर कार्माण वर्गणाओं के पुद्गल स्कंध आत्मा में अपने आप ही ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन कर जाते हैं। 67. प्रश्न : निमित्त-नैमित्तिक संबंध किसे कहते हैं ? उत्तर : जब उपादान स्वत: कार्यरूप परिणमता है, तब भावरूप या अभावरूप किस उचित (योग्य) निमित्त कारण का उसके साथ सम्बन्ध है - यह बताने के लिए उस कार्य को नैमित्तिक कहते हैं। इस तरह से भिन्न पदार्थों के इस स्वतन्त्र सम्बन्ध को निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कहते हैं। ___ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध परतन्त्रता का सूचक नहीं है, किन्तु नैमित्तिक के साथ कौन निमित्तरूप पदार्थ है; उसका ज्ञान कराता है। जिस कार्य को निमित्त की अपेक्षा नैमित्तिक कहा है, उसी को उपादान की अपेक्षा उपादेय भी कहते हैं। (यह संबंध दो द्रव्यों - उपादान एवं निमित्त की एक समयवर्ती वर्तमानकाल की पर्यायों में ही बनता है / )